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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेम– बहुत आराम से बैठा हूँ।

राय साहब– आप इस त्रिमूर्ति को देखकर चौंकते होंगे। पर मेरे लिए यह मिट्टी के खिलौने हैं। विषयायुक्त आँखें इनके रूप-लावण्य पर मिटती हैं, मैं उस ज्योति को देखता हूँ जो इनके घट में व्याप्त है। बाह्य रूप कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मुझे विचलित नहीं कर सकता। वह भकुएँ हैं, जो गुफाओं और कन्दराओं में बैठकर तप और ध्यान के स्वांग भरते हैं। वह कायर हैं, प्रलोभनों से मुँह छिपाने वाले, तृष्णाओं से जान बचाने वाले। वे क्या जानें कि आत्मा-स्वातन्त्र्य क्या वस्तु है? चित्त की दृढ़ता और मनोबल का उन्हें अनुभव ही नहीं हुआ। वह सूखी पत्तियाँ हैं जो हवा के एक झोंके से जमीन पर गिर पड़ती हैं। योग कोई दैहिक क्रिया नहीं है, आत्म-शुद्धि, मनोबल और इन्द्रिय दमन ही सच्चा योग, सच्ची तपस्या है। वासनाओं में पड़कर अविचलित रहना ही सच्चा वैराग्य है। उत्तम पदार्थों का सेवन कीजिए; मधुर गान का आनन्द उठाइए, सौन्दर्य की उपासना कीजिए; परन्तु मनोवृत्तियों का दास न बनिए; फिर आप सच्चे वैरागी हैं (दोनों पहलवानों से) पण्डा जी! तुम बिल्कुल बुद्धू ही रहे, यह महाश्य अमेरिका का भ्रमण कर आये हैं, हमारे दामाद हैं। इन्हें कुछ अपनी कविता सुनाओ, खूब फड़कते हुए कवित्त हों।

दोनों पण्डे खड़े हो गये और स्वर मिलाकर एक कवित्त पढ़ने लगे। कवित्त क्या था, अपशब्दों का पोथा और अश्लीलता का अविरल प्रवाह था। एक-एक शब्द बेहयायी और बेशर्मी में डूबा हुआ था। मुँहफूट भाँड़ भी लज्जास्पद अंगों का ऐसा नग्न ऐसा घृणोत्पादक वर्णन न कर सकते होंगे। कवि ने समस्त भारतवर्ष के कबीर और फाग का इत्र, समस्त कायस्थ समाज की वैवाहिक गजलों का सत, समस्त भारतीय नारि-वृन्दा की प्रथा-प्रणीत गलियों का निचोड़ और समस्त पुलिस विभाग के करमचारियों के अपशब्दों का जौहर खींचकर रख दिया था और वह गन्दे कवित्त इन पण्डों के मुँह से ऐसी सफाई से निकल रहे थे, मानो फूल झड़ रहे हैं। राय साहब मूर्तिवत् बैठे थे, हँसी का तो कहना क्या, ओठों पर मुस्कुराहट का चिह्न भी न था। तीनों वेश्याओं ने शर्म से सिर झुका लिया, किन्तु प्रेमाशंकर हँसी को रोक न सके। हँसते-हँसते उनके पेट में बल पड़ गये।

पण्डों के चुप होते ही सामाजियों का आगमन हुआ। उन्होंने अपने साज मिलाए, तबले पर थाप पड़ी, सारंगियों ने स्वर मिलाया और तीनों रमणियां ध्रुपद अलापने लगीं। प्रेमशंकर को स्वर लालित्य का वही आनन्द मिल रहा था जो किसी गँवार को उज्जवल रत्नों के देखने से मिलता है। इस आनन्द में रसज्ञता न थी; किन्तु मर्मज्ञ राय साहब मस्त हो-होकर झूम रहे थे और कभी-कभी स्वयं गाने लगते थे।

आधी रात तक मधुर अलाप की तानें उठती रहीं। जब प्रेमशंकर ऊँघ-ऊँघ कर गिरने लगे तब सभा विसर्जित हुई। उन्हें राय साहब की बहुज्ञता और प्रतिभा पर आश्चर्य हो रहा था, इस मनुष्य में कितना बुद्धि चमत्कार, कितना आत्मबल, कितनी सिद्धि, कितनी सजीविता है और जीवन का कितना विलक्षण आदर्श!

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