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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


दूसरे दिन प्रेमशंकर सोकर उठे तो आठ बजे थे। मुँह-हाथ धोकर बरामदे में टहलने लगे कि सामने से राय साहब एक मुश्की घोड़े पर सवार आते दिखाई दिए। शिकारी वस्त्र पहने हुए थे। कन्धे पर बन्दूक थी। पीछे-पीछे शिकारी कुत्तों का झुण्ड चला आ रहा था। प्रेमशंकर को देखकर बोले– आज किसी भले आदमी का मुँह देखा था। एक वार भी खाली नहीं गया। निश्चय कर लिया था कि जलपान के समय तक लौट आऊँगा। आप कुछ अनुमान कर सकते हैं कितनी दूर से आ रहा हूँ? पूरे बीस मील का धावा किया है। तीन घण्टे से ज्यादा कभी नहीं सोता। मालूम है न आज तीन बजे से जलसा शुरू होगा।

प्रेम– जी हाँ, डेलिगेट लोग (प्रतिनिधिगण) आ गये होंगे?

राय– (हँसकर) मुझे अभी तक कुछ खबर नहीं और मैं ही स्वागतकारिणी समिति का प्रधान हूँ। मेरे मुख्तार साहब ने सब प्रबन्ध कर दिया होगा। अभी तक मैंने कुछ भी नहीं सोचा कि वहाँ क्या कहूँगा? बस मौके पर जो मुँह में आयेगा, बक डालूँगा।

प्रेम– आपकी सूझ बहुत अच्छी होगी?

राय– जी हाँ, मेरे एसोसिएशन में ऐसा कोई नहीं है, जिसकी सूझ अच्छी न हो। इस गुण में एक से एक बढ़कर हैं। कोषाध्यक्ष को आय-व्यय का पता नहीं, पर सभा के सामने वह पूरा ब्योरा दिखा देंगे। यही हाल औरों का भी है। जीवन इतना अल्प है कि आदमी को अपने ही ढोल पीटने से छुट्टी नहीं मिलती, जाति का मंजीरा कौन बजाये?

प्रेम– ऐसी संस्थाओं से देश का क्या उपकार होगा?

राय– उपकार क्यों नहीं, क्या आपके विचार में जाति का नेतृत्व निरर्थक वस्तु है? आजकल तो यही उपाधियों का सदर दरवाजा हो रहा है। सरल भक्तों का श्रद्धास्पद बनना क्या कोई मामूली बात है? बेचारे जाति के नाम पर मरनेवाले सीधे-सादे लोग दूर-दूर से हमारे दर्शनों को आते हैं। हमारी गाड़ियाँ खींचते हैं, हमारी पदरज को माथे पर चढ़ाते हैं। क्या यह कोई छोटी बात है? और फिर हममें कितने ही जाति के सेवक ऐसे भी हैं जो सारा हिसाब मन में रखते हैं, उनसे हिसाब पूछिए तो वह अपनी तौहीन समझेंगे और इस्तीफे की धमकी देंगे। इसी संस्था के सहायक मन्त्री की वकालत बिल्कुल नहीं चलती; पर अभी उन्होंने बीस हजार का एक बँगला मोल लिया है। जाति से ऐसे भी लेना है, वैसे भी लेना है, चाहे इस बहाने से लीजिए, चाहे उस बहाने से लीजिये!

प्रेम– मुझे अपना निबन्ध पढ़ने का समय कब मिलेगा?

राय– आज तो मिलेगा नहीं। कल गार्डन पार्टी है। हिज एक्सेलेन्सी और अन्य अधिकारी वर्ग निमन्त्रित हैं। सारा दिन उसी तैयारी में लग जायेगा। परसों सब चिड़ियाँ उड़ जायेंगी, कुछ इने-गिने लोग रह जायेंगे, तब आप शौक से अपना लेख सुनाइएगा।

यही बातें हो रही थीं कि राजा इन्द्रकुमार सिंह का आगमन हुआ। राय साहब ने उनका स्वागत करके पूछा– नैनीताल कब तक चलिएगा।

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