सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
राजा साहब– मैं तो सब तैयारियाँ करके चला हूँ। यहीं से हिज एक्सेलेन्सी के साथ चला जाऊँगा। क्या मिस्टर ज्ञानशंकर नहीं आये?
प्रेम– जी नहीं, उन्हें अवकाश नहीं मिला।
राजा– मैंने समाचार-पत्रों में आपके लेख देखे थे। इसमें सन्देह नहीं कि आप कृषि-शास्त्र के पण्डित हैं, पर आप जो प्रस्ताव कर रहे हैं वह यहाँ के लिए कुछ बहुत उपयुक्त नहीं जान पड़ता। हमारी सरकार ने कृषि की उन्नति के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। जगह-जगह पर प्रयोगशालाएँ खोलीं, सस्ते दामों में बीज बेचती हैं, कृषि संबंधी आविष्कारों का पत्रों द्वारा प्रचार करती है। इस काम के लिए कितने ही निरीक्षक नियुक्त किए हैं, कृषि के बड़े-बड़े कॉलेज खोल रक्खे हैं? पर उनका फल कुछ न निकला। जब वह करोड़ो रुपये व्यय करके कृत-कार्य न हो सकी तो आप दो लाख की पूँजी से क्या कर लेंगे? आपके बनाए हुए यन्त्र कोई सेंत भी न लेगा। आपकी रासायनिक खादें पड़ी सड़ेंगी। बहुत हुआ, आप पाँच-सात सैकड़े मुनाफे दे देंगे। इससे क्या होता है? जब हम दो-चार कुएँ, खोदवाकर, पटवारी से मिलकर, कर्मचारियों का सत्कार करके आसानी से अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं, तो यह झंझट कौन करे।
प्रेम– मेरा उद्देश्य कोई व्यापार खोलना नहीं है। मैं तो केवल कृषि की उन्नति के लिए धन चाहता हूँ। सम्भव है आगे चलकर लाभ हो, पर अभी तो मुनाफे की कोई आशा नहीं।
राजा– समझ गया, यह केवल पुण्य-कार्य होगा।
प्रेम– जी हाँ, यही मेरा उद्देश्य है। मैंने अपने उन लेखों में और इस निबन्ध में भी यही बात साफ-साफ कह दी है।
राजा– तो फिर आपने श्रीगणेश करने में भूल की। आपको पहले इस विषय में लाट साहब की सहानुभूति प्राप्त करनी चाहिए थी। तब दो कि जगह आपको दस लाख बात की बात में मिल जाते। बिना सरकारी प्रेरणा के यहाँ ऐसे कामों में सफलता नहीं होती। यहाँ आप जितनी संस्थाएँ देख रहे हैं, उनमें किसी का जन्म स्वाधीन रूप से नहीं। यहाँ की यही प्रथा है। राय साहब यदि आपको हिज एक्सेलेन्सी से मिला दें और उनकी आप पर कृपादृष्टि हो जाये तो कल ही रुपये का ढेर लग जाये।
राय– मैं बड़ी खुशी से तैयार हूँ।
प्रेम– मैं इस संस्था को सरकारी सम्पर्क से अलग रखना चाहता हूँ।
राजा– ऐसी दशा में आप इस एसोसिएशन से सहायता की आशा न रखें कम-से-कम मेरा यही विचार है; क्यों राय साहब?
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