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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


यह सोचते हुए वह घर पहुँचे तो अपने दोनों छोटे चचेरे भाइयों को अपने कमरे में किताबें उलटते-पुलटते देखा। यद्यपि यह कोई असाधारण बात न थी, पर ज्ञानशंकर इस समय मानसिक अशान्ति से पीड़ित हो रहे थे। जल गये और दोनों लड़कों को डाँटकर भगा दिया। इन लोगों ने अवश्य मुझे छेड़ने के लिए इन शैतानों को यहाँ भेज दिया। नीचे इतना बड़ा दीवानखाना है, दो कमरे हैं, क्या उनके लिए इतना काफी नहीं कि मेरे पास एक छोटे-से कमरे को भी नहीं देख सकते। क्या इस पर भी दाँत है? मुझे घर से निकालने की ठानी है क्या? इस मामले को अभी न साफ कर लेना चाहिए। यह कदापि नहीं हो सकता कि मुझे लोग दबाते जाएँ और मैं चूँ न करूँ। मन में यह निश्चय करके उन्होंने तत्क्षण अपने चाचा के नाम यह पत्र लिखा–

मान्यवर, यह बात मेरे लिए असह्य है कि आपके सुपुत्र मेरी अनुपस्थिति में मेरे कमरे में आकर ऊधम मचायें और मेरी वस्तुओं का सर्वनाश करें। मैं चाहता हूँ कि आज घर का बँटवारा हो जाये और लड़कों को ताकीद कर दी जाये कि वह भूलकर भी मेरे मकान में पदक्षेप न करे, अन्यथा मैं उनकी ताड़ना करूँ, तो आपको या चाची को मुझसे शिकायत करने का कोई अधिकार न रहेगा। इसका ध्यान रखियेगा कि मुझे जो भाग मिले वह गार्हस्थ्य आवश्यकताओं के अनुकूल हो, और सबसे बड़ी बात यह है कि वह पृथक हो, जिसमें मैं उसको अपना सकूँ और आते-जाते उठते-बैठते, आग्नेय नेत्रों और व्यंग्य सरों का लक्ष्य न बनूँ।

यह पत्र कहार को देकर वह उत्तर का इन्तजार करने लगे। सोच रहे थे कि देखें, बुड्ढा अबकी क्या चाल चलता है? एक क्षण में कहार ने उसका जवाब लाकर उनके हाथों में रख दिया–

‘बेटा, मेरे लड़के तुम्हारे लड़के हैं। उन्हें दण्ड देने का तुमको पूरा अधिकार है, इसकी शिकायत मुझे न कभी हुई है न होगी। बल्कि तुम्हारा मुझ पर अनुग्रह होगा, यदि कभी-कभी इनकी खबर लेते रहो। रहा घर का बँटवारा, उसे मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। घर तुम्हारा है, मैं भी तुम्हारा हूँ, जो टुकड़ा चाहो मुझे दे दो, मुझे कोई आपत्ति न होगी। हाँ, यह ध्यान रखना कि मैं बाहर बैठने का आदी हूँ, इसलिए दीवानखाने के बरामदे में मेरे लिए एक चौकी की जगह दे देना। बस, यही मेरी हार्दिक अभिलाषा थी कि मेरे जीवनकाल में यह विच्छेद न होता, पर तुम्हारी यदि यही इच्छा है और तुम इसी में प्रसन्न हो तो मैं क्या कर सकता हूँ।’

ज्ञानशंकर ने पुर्जे को जेब में रख लिया और मुस्कराये। बुड्ढा कैसा घाघ है। इन्हीं नम्रताओं से उसने पिताजी को उल्लू बना लिया था। मुझसे भी वही चाल चल रहा है, पर मैं ऐसा गौखा नहीं हूँ। समझे होंगे कि जरा दब जाऊँ तो वह आप ही दब जायेगा! यहाँ ऐसी विषम शालीनता का पाठ नहीं पढा है। विवश होकर दबना तो समझ में आता है, पर किसी के खातिर से दबना, केवल समय के हाथों की कठपुतली बनना, यह निरी भावुकता है!

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