सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्ञानशंकर बैठकर सोचने लगे, कैसे इस समस्या की पूर्ति करूँ, केवल यह एक कमरा नीचे के दीवानखाने और उसके बगल के दोनों कमरों की समता नहीं कर सकता। ऊपर के दो कमरों पर दयाशंकर का अधिकार है। पर ऊपर तीनों कमरे मेरे, नीचे के तीनों कमरे उनके। यहाँ तो बड़ी सुगमता से विभाग हो गया; किंतु जनाने घर में यह पार्थक्य इतना सुलभ नहीं। पद की कम-से-कम दो दीवारें खींचनी पड़ेगी। पूर्व की ओर निकास के लिए एक द्वार खोलना पड़ेगा, और इसमें झंझट है। म्युनिसिपैलिटी महीनों का असलेट लगा देगी। क्या हर्ज है, यदि मैं दीवानखाने के नीचे-ऊपर के दोनों भागों पर सन्तोष कर लूँ? जनाना मकान इससे बड़ा अवश्य है, पर न जाने कब का बना हुआ है। थोड़े ही दिनों में उसे फिर बनवाना पड़ेगा। दीवारें अभी से गिरने लगी हैं। नित्य मरम्मत होती ही रहती है। छत भी टपकती है। बस, मेरे लिए दीवानखाना ही अच्छा है। चाचा साहब का इसमें गुजर नहीं हो सकता, उन्हें विवश होकर जनाना मकान लेना पड़ेगा। यह बात मुझे खूब सूझी, अपना अर्थ भी सिद्ध हो जायेगा। और उदारता का श्रेय भी हाथ रहेगा।
मन में यह निश्चय करके वह स्त्रियों से परामर्श करने के लिए अन्दर गये । वह सभ्यता के अनुसार स्त्रियों की सम्मति अवश्य लेते थे, पर ‘वीटो’ का अधिकार अपने हाथ में रखते और प्रत्येक अवसर पर उसका उपयोग करने के कारण वह अबाध्य सम्मति का गला घोंट देते थे। वह अन्दर गये तो उन्हें बड़ा करुणाजनक दृश्य दिखाई दिया। दयाशंकर कचहरी जा रहे थे और बड़ी बहू आँखों में आँसू भरे उसको विदा कर रही थीं। दोनों बहनें उनके पैरों से लिपटकर रो रही थीं। उनकी पत्नी अपने कमरे के द्वार पर घूँघट निकाले उदास खड़ी थी। संकोचवश पति के पास न आ सकती थी। श्रद्धा भी खड़ी रो रही थी। आज अभियोग का फैसला सुनाया जाने वाला था। मालूम नहीं क्या होगा। घर लौटकर आना बदा है या फिर घर का मुंह देखना नसीब न होगा। दयाशंकर अत्यन्त कातर दीख पड़ते थे। ज्ञानशंकर को देखते ही उनके नेत्र सजल हो गये, निकट आकर बोले– भैया, आज मेरा हृदय शंका से काँप रहा है। ऐसा जान पड़ता है, आप लोगों के दर्शन न होंगे। मेरे अपराधों को क्षमा कीजिएगा, कौन जाने फिर भेंट हो या न हो, दया का क्या आसरा? यह घर अब आपके सुपर्द है।
ज्ञानशंकर उनकी यह बातें सुनकर पिघल गये। अपने हृदय की संकीर्णता क्षुद्रता पर ग्लानि उत्पन्न हुई। तस्कीन देते हुए बोले– ऐसी बातें मुँह से न निकलो, तुम्हारा बाल भी बाँका न होगा। ज्वालासिंह कितने ही निर्दयी बनें, पर मेरे एहसानों को नहीं भूल सकते। और सच्ची बात तो यह है कि मैं अभी तुम्हारे ही सम्बन्ध में बातें करके उनके पास से आ रहा हूँ, तुम अवश्य ही बरी हो जाओगे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में मुझे इसका विश्वास दिलाया है। चलता तो मैं भी तुम्हारे साथ, किन्तु मेरे जाने से काम बिगड़ जायेगा।
दयाशंकर ने अविश्वासपूर्ण कृतज्ञता के भाव से उनकी ओर देखकर कहा, हाकिमों की बात का क्या भरोसा?
ज्ञानशंकर– ज्वालासिंह उन हाकिमों में नहीं हैं।
दयाशंकर– यह न कहिए, बड़ा बेमुरौवत आदमी है।
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