सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
विद्या– आज तो भोजन बना ही नहीं। तुम्हीं ने घर बाँटने के लिए चाचा जी को चिट्ठी लिखी थी। तब से वह बैठे हुए रो रहे हैं।
ज्ञानशंकर– उनका रोने का जी चाहता है तो रोयें! हम लोगों को भूखों मारेंगे क्या?
विद्या ने पति को तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा– घर में जब ऐसा रार मचा हो तो खाने-पीने की इच्छा किसे होती है? चचा जी को इस दशा में देखकर किसके घट के नीचे अन्न जायेगा। एक तो लड़के पर विपत्ति, दूसरे घर में यह द्वेष। जब से तुम्हारी चिट्ठी पाई है, सिर नहीं उठाया! तुम्हें अलग होने की यह धुन क्यों समायी है?
ज्ञानशंकर– इसीलिए कि जो थोड़ी– बहुत जायदाद बच रही है वह भी इस भाड़ में न जल जाये। पहले घर में छः हजार सालाना की जायदाद थी, अब मुश्किल से दो हजार की रह गयी। इन लोगों ने सब खा-पीकर बराबर कर दिया।
विद्या– तो यह लोग कोई पराये तो नहीं हैं।
ज्ञानशंकर– तुम जब ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करने लगती हो तो मालूम होता है, धन्नासेठ की बेटी हो। तुम्हारे बाप के पास तो लाखों की सम्पत्ति है, क्यों नहीं उसमें थोड़ी-सी हमें दे देते, वह तो कभी बात नहीं पूछते और तुम्हारे पैरों तले गंगा बहती है।
विद्या– पुरुषार्थी लोग दूसरों की सम्पत्ति पर मुँह नहीं फैलाते। अपने बाहु-बल का भरोसा रखते हैं।
ज्ञानशंकर– लजाती तो नहीं हो, ऊपर से बढ़-बढ़ कर बातें करती हो। यह क्यों नहीं कहती कि घर की जायदाद प्राणों से भी प्रिय होती है और उसकी रक्षा प्राणों से भी अधिक की जाती है? नहीं तो ढाई लाख सालाना जिसके घर में आता हो, उसके लिए बेटी– दामाद पर दो-चार हजार खर्च कर देना कौन-सी बड़ी बात है? लाला साहब तो पैसे को यों दाँतों से पकड़ते हैं और तुम इतनी उदार बनती हो माने जायदाद का कुछ मूल्य ही नहीं।
इतने में श्रद्धा आ गयी और ज्ञानशंकर घर के बँटवारे के विषय में उससे बातें करने लगे।
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