सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्ञानशंकर ने उनके हृदयस्थ अविश्वास को तोड़कर कहा, यही हृदय की निर्बलता हमारे अपराधों का ईश्वरीय दंड है, नहीं तो तुम्हें इतना अविश्वास न होता।
दयाशंकर लज्जित होकर वहाँ से चले गये। ज्ञानशंकर ने भी उनसे और कुछ न कहा– उन्होंने हारी हुई बाजी को जीतना चाहा था, पर सफल न हुए। वह इस बात पर मन में झुँझलाए कि यह लोग मुझे उच्च भावों के योग्य नहीं समझते। मैं इनकी दृष्टि में विषैला सर्प हूँ। जब मुझ पर अविश्वास है तो फिर जो कुछ करना है वह खुल्लम-खुल्ला क्यों न करूँ? आत्मीयता का स्वाँग भरना व्यर्थ है। इन भावों से यह लोग अब हत्थे चढ़ने वाले नहीं। सद्भावों का अंकुर जो एक क्षण के लिए उनके हृदय में विकसित हुआ था, इन दुष्कामनाओं से झुलस गया। वह विद्या के पास गये तो उसने पूछा– आज सबेरे कहाँ गये थे?
ज्ञानशंकर– जरा ज्वालासिंह से मिलने गया था।
विद्या– तुम्हारी ये बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं।
ज्ञान– कौन-सी बातें?
विद्या– यही, अपने घर के लोगों की हाकिमों से शिकायत करना। भाइयों में खटपट सभी जगह होती है, मगर कोई इस तरह भाई की जड़ नहीं काटता।
ज्ञानशंकर ने होंठ चबाकर कहा– तुमने मुझे इतना कमीना, इतना कपटी समझ लिया है?
विद्या दृढ़ता से बोली– अच्छा मेरी कसम खाओ कि तुम इसलिए ज्वालासिंह के पास नहीं गए थे।
ज्ञानशंकर ने कठोर स्वर में कहा– मैं तुम्हारे सामने अपनी सफाई देना आवश्यक नहीं समझता।
यह कहकर ज्ञानशंकर चारपाई पर बैठ गये । विद्या ने पते की बात कही थी और इसने उन्हें मर्माहत कर दिया था। उन्हें इस समय विदित हुआ कि सारे घर के लोग, यहाँ तक कि मेरी स्त्री भी मुझे कितना नीच समझती है।
विद्या ने फिर कहा– अरे तो यहाँ कोई दूसरा थोड़े ही बैठा हुआ है, जो सुन लेगा।
ज्ञानशंकर– चुप भी रहो, तुम्हारी ऐसी बातों से बदन में आग लग जाती है। मालूम नहीं, तुम्हें कब बात करने की तमीज आयेगी। क्या हुआ, भोजन न मिलेगा क्या? दोपहर तो होने को आयी।
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