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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


किन्तु कादिर निश्चिंत और निश्शंक अपने काम में लगा रहता था। उसे एक क्षण के लिए भी यह भय न होता था कि गाँव के ज़मींदार और कारिन्दा मेरे शत्रु हो रहे हैं और उनकी शत्रुता मेरा सर्वनाश कर सकती है। यदि इस समय भी दैवयोग से खाँ साहब बीमार पड़ जाते, तो वह उनका इशारा पाते ही तुरन्त उनके उपचार और सेवा-शुश्रूषा में दत्तचित्त हो जाता। उसके हृदय में राग और द्वेष के लिए स्थान न था और न इस बात की परवाह थी कि मेरे विषय में कैसे-कैसे मिथ्यालाप हो रहे हैं! वह गाँव में विद्रोहाग्नि भड़का सकता था; खाँ साहब उनके सिपाहियों की खबर ले सकता था। गाँव में ऐसे उद्दंड नवयुवक थे, जो इस अनिष्ट के लिए आतुर थे, किन्तु कादिर उन्हें सँभाले रहता था। दीन-रक्षा उसका लक्ष्य था, किन्तु क्रोध और द्वेष को उभाड़कर नहीं, वरन् सद्व्यहार तथा सत्प्रेरणा से।

मनोहर की दशा इसके प्रतिकूल थी। जिस दिन से वह ज्ञानशंकर की कठोर बातें सुनकर लौटा था, उसी दिन से विकृत भावनाएँ उसके हृदय और मस्तिष्क में गूँजती रहती थीं। एक दीन मर्माहत पक्षी था, जो घावों से तड़प रहा था! वह अपशब्द उसे एक क्षण भी नहीं भूलते थे। वह ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहता था। वह जानता था कि सबलों से बैर बढ़ाने में मेरा सर्वनाश होगा, किन्तु इस समय उसकी अवस्था उस मनुष्य की सी हो रही थी, जिसके झोंपड़े में आग लगी हो और वह उसके बुझाने में असमर्थ होकर शेष भागों में भी आग लगा दे कि किसी प्रकार विपत्ति का अंत हो। रोगी अपने रोग को असाध्य देखता है, तो पथ्यापथ्य की बेड़ियों को तोड़कर मृत्यु की और दौड़ता है। मनोहर चौपाल के सामने से निकलता तो अकड़कर चलने लगता। अपनी चारपाई पर बैठे हुए कभी खाँ साहब या गिरधर महाराज को आते देखता, तो उठकर सलाम करने के बदले पैर फैलाकर लेट जाता। सावन में उसके पेड़ों के आम पके, उसने सब आम तोड़कर घर में रख लिये, ज़मींदार का चिरकाल से बँधा हुआ चतुर्थांश न दिया, और जब गिरधर महाराज माँगने आये तो उन्हें दुत्कार दिया। वह सिद्ध करना चाहता था कि मुझे तुम्हारी धमकियों की जरा भी परवाह नहीं है, कभी-कभी नौ-दस बजे रात तक उसके द्वार पर गाना होता, जिसका अभिप्राय केवल खाँ साहब और सुक्खू चौधरी को जलाना था। बलराज को अब वह स्वेच्छाचार प्राप्त हो गया, जिसके लिए पहले उसे झिड़कियाँ खानी पड़ती थीं। उनके रंगीले सहचरों का यहाँ खूब आदर-सत्कार होता, भंग छनती, लकड़ी के खेल होते, लावनी और ख्याल की तानें उड़ती डफली बजती। मनोहर जवानी के जोश के साथ इन जमघटों में सम्मिलित होता। ये ही दोनों पक्षों के विचार- विनिमय के माध्यम से। खाँ साहब की एक-एक बात की सूचना यहाँ हो जाती थी। यहाँ का एक-एक शब्द वहाँ पहुँच जाता था। यह गुप्त चालें आग पर तेल छिड़कती रहती थीं। खाँ साहब ने एक दिन कहा, आजकल तो उधर गुलछर्रे उड़ रहे हैं, बेदखली का सम्मन पहुँचेगा तो होश ठिकाने हो जायेगा। मनोहर ने उत्तर दिया– बेदखली की धमकी दूसरे को दें, यहाँ हमारे खेत के मेडों पर कोई आया तो उसके बाल-बच्चे उसके नाम को रोयेंगे।

एक दिन सन्ध्या समय, मनोहर द्वार पर बैठा हुआ बैलों के लिए कड़वी छाँट रहा था और बलराज अपनी लाठी में तेल लगाता था कि ठाकुर डपटसिंह आकर माचे पर बैठ गये और बोले, सुनते हैं डिप्टी ज्वालासिंह हमारे बाबू साहब के पुराने दोस्त हैं! छोटे सरकार के लड़के थानेदार थे, उनका मुकदमा उन्हीं के इलजाम में था। वह आज बरी हो गये।

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