सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
मनोहर– रिश्वत तो साबित हो गई थी न?
डपटसिंह– हाँ, साबित हो गई थी। किसी को उनके बरी होने की आशा न थी। पर बाबू ज्ञानशंकर ने ऐसी सिफारिस पहुँचायी कि डिप्टी साहब को मुकदमा खारिज करना पड़ा।
मनोहर– हमारे परगने का हाकिम भी तो वही डिप्टी है।
डपट– हाँ, इसी की तो चिन्ता है। इजाफा लगान का मामला उसी के इलजाम में जायेगा और ज्ञान बाबू अपना पूरा जोर लगायेंगे?
मनोहर– तब क्या करना होगा?
डपट– कुछ समझ में नहीं आता।
मनोहर– ऐसा कोई कानून नहीं बन जाता कि बेसी का मामला इन हाकिमों के इजलास में न पेश हुआ करे। हाकिम लोग आप भी तो ज़मींदार होते हैं, इसलिए वह जमींदारों का पक्ष करते हैं। सुनते हैं, लाट साहब के यहाँ कोई पंचायत होती है। यह बातें उस पंचायत में कोई नहीं कहता?
डपट– वहाँ भी तो सब ज़मींदार होते हैं, काश्तकारों की फरयाद कौन करेगा?
मनोहर– हमने तो ठान लिया है कि एक कौड़ी भी बेसी न देंगे।
बलराज ने लाठी कन्धे पर रखकर कहा, कौन इजाफ़ा करेगा, सिर तोड़ के रख दूँगा।
मनोहर– तू क्यों बीच में बोलता है? तुझसे तो हम नहीं पूछते। यह तो न होगा कि साँझ हो गयी है, लाओ भैंस दुह लूँ, बैंल की नाद में पानी डाल दूँ। बे बात की बात बकता है। (ठाकुर से) यह लौंडा घर का रत्ती भर काम नहीं करता। बस खाने भर का घर से नाता है, मटरगस किया करता है।
डपट– मुझसे क्या कहते हो मेरे यहाँ तो तीन-तीन मूसलचन्द हैं।
मनोहर– मैं तो एक कौड़ी बेसी न दूँगा, और न खेत ही छोड़ूँगा। खेतों के साथ जान भी जायेगी और दो-चार को साथ लेकर जायेगी।
बलराज– किसी ने हमारे खेतों की ओर आँख भी उठायी तो कुशल नहीं।
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