सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
बलराज– तुम्हारा मुँह न खुले, मेरी तो लाट साहब से बातचीत हो, तो सारी कथा कह सुनाऊँ।
कादिर– अच्छा, अबकी हाकिम लोग दौरे पर आयेगे, तो हम तुम्हीं को उनके सामने खड़ा कर देंगे।
यह कहकर कादिर खाँ घर की ओर चले। बलराज ने भी लाठी कन्धे पर रखी और उनके पीछे चला। जब दोनों कुछ दूर निकल गये तब बलराज ने कहा– दादा, कहो तो खाँ साहब की (घूँसे का इशारा करके) कर दी जाय।
कादिर ने चौंककर उसकी ओर देखा– क्या गाँव भर को बँधवाने पर लगे हो? भूलकर भी ऐसा काम न करना।
बलराज– सब मामला लैस है, तुम्हारे हुकुम की देर है।
कादिर– (कान पकड़कर) न! मैं तुम्हें आग में कूदने की सलाह न दूँगा। जब अल्लाह को मंजूर होगा तब वह आप ही यहाँ से चले जायेंगे।
बलराज– अच्छा तो बीच में न पड़ोगे न?
कादिर– तो क्या तुम लोग सचमुच मार-पीट पर उतारू हो क्या? हमारी बात न मानोगे तो मैं जाकर थाने में इत्तला कर दूँगा। यह मुझसे नहीं हो सकता कि तुम लोग गाँव में आग लगाओ और मैं देखता रहूँ।
बलराज– तो तुम्हारी सलाह है नित यह अन्याय सहते जायें!
कादिर– जब अल्लाह को मन्जूर होगा तो आप-ही-हाप सब उपाय हो जायेगा।
८
जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ही एक अन्य प्रकार के जन्तु देहातों में निकल पड़ते हैं और अपने खेमों तथा छोलदारियों से समस्त ग्राम-मण्डल को उज्जवल कर देते हैं। वर्षा के आदि में राजसिक कीट और पतंग का उद्भव होता है, उसके अन्त में तामसिक कीट और पतंग का। उनका उत्थान होते ही देहातों में भूकम्प-सा आ जाता है और लोग भय से प्राण छिपाने लगते हैं।
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