सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
इसमें सन्देह नहीं कि अधिकारियों के यह दौरे सदिच्छाओं से प्रेरित होकर होते हैं। उनका अभिप्राय है जनता की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना, न्यायप्रार्थी के द्वार तक पहुँचना, प्रजा के दुःखों को सुनना, उनकी आवश्यकताओं को देखना, उनके कष्टों का अनुमान करना, उनके विचारों से परिचित होना। यदि यह अर्थ सिद्ध होते तो यह दौरे बसन्तकाल से भी अधिक प्राण-पोषक होते, लोग वीणा, पखावज से, ढोल-मजीरे से उनका अभिवादन करते किन्तु जिस भाँति प्रकाश की रश्मियाँ पानी में वक्रगामी हो जाती हैं, उसी भाँति सदिच्छाएँ भी बहुधा मानवीय दुर्बलताओं के सम्पर्क से विषम हो जाया करती हैं। सत्य और न्याय पैरों के नीचे आ जाता है, लोभ और स्वार्थ की विजय हो जाती है! अधिकारी वर्ग और उनके कर्मचारी विरहिणी की भाँति इस सुख काल के दिन गिना करते हैं। शहरों में तो उनकी दाल नहीं गलती, या गलती है तो बहुत कम! वहाँ प्रत्येक वस्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है, किन्तु देहातों में जेब की जगह उनका हाथ अपने सोंटे पर होते या किसी दीन किसान की गर्दन पर! जिस घी, दूध, शाक-भाजी, मांस-मछली आदि के लिए शहर में तरसते थे, जिनका स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता था, उन पदार्थों की यहाँ केवल जिह्वा और बाहु के बल से रेल-पेल हो जाती है। जितना खा सकते हैं, खाते हैं, बार-बार खाते हैं, और जो नहीं खा सकते, वह घर भेजते हैं। घी से भरे हुए कनस्तर, दूध से भरे हुए मटके, उपले और लकड़ी घास और चारे से लदी हुई गाड़ियाँ शहरों में आने लगती हैं। घरवाले हर्ष से फूले नहीं समाते, अपने भाग्य को सराहते हैं, क्योंकि अब दुःख के दिन गये और सुख के दिन आये। उनकी तरी वर्षा के पीछे आती है, वह खुश्की में तरी का आनन्द उठाते हैं। देहातवालों के लिए वह बड़े संकट के दिन होते हैं, उनकी शामत आ जाती है, मार खाते हैं, बेगार में पकड़े जाते है; दासत्व के दारुण निर्दय आघातों से आत्मा का भी ह्रास हो जाता है।
अगहन का महीना था, साँझ हो गयी थी। कादिर खाँ के द्वार पर अलाव लगी हुयी थी। कई आदमी उसके इर्द-गिर्द बैठे हुए बातें कर रहे थे। कादिर ने बाजार के तम्बाकू की निन्दा की, दुखरन भगत ने उनका अनुमोदन किया। इसके बाद डपटसिंह पर्थर और बेलन के कोल्हुओं के गुण-दोष की विवेचना करने लगे, अन्त में लोहे ने पत्थर पर विजय पायी।
दुखरन बोले– आजकल रात को मटर में सियार और हरिन बड़ा उपद्रव मचाते हैं। जाड़े के मारे उठा नहीं जाता।
कादिर– अब की ठण्डी पड़ेगी। दिन को पछुआ चलता है। मेरे पास तो कोई कम्बल भी नहीं, वही एक दोहर लपेटे रहता हूँ। पुवाल न हो गया होता तो रात को अकड़ जाता।
डपट– यहाँ किसके पास कम्बल है। उसी एक पुराने धुस्से की भुगुत है। लकड़ी भी इतनी नहीं मिलती कि रात भर तापें।
मनोहर– अब की बेटी के ब्याह में इमली का पेड़ कटवाया था। क्या सब जल गयी?
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