सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
एक चपरासी– कम-से-कम दस सेर।
कादिर– दस-सेर! इतना दूध तो चाहे गाँव भर में न निकले। दो ही चार आदमियों के पास भैंसे हैं और वह दुधार नहीं हैं। मेरे यहाँ तो दोनों जून में सेर भर से ज्यादा नहीं होता।
चपरासी– भैंसे हमारे सामने लाओ, दूध तो हमारा चपरासी निकालता है। हम पत्थर से दूध निकाल लें। चोरों के पेट तक की बात निकाल लेते हैं, भैंसे तो फिर भी भैंसे हैं। इस चपरास में वह जादू है, कि चाहे तो जंगल में मंगल कर दे। लाओ, भैंसें यहाँ खड़ी करो।
गौस खाँ– इतने तूल-कलाम की क्या जरूरत है? दूध का इन्तजाम हो जायेगा। दो सेर सुक्खू देने को कहते हैं। कादिर के यहाँ दो सेर मिल ही जायेगा, दुखरन भगत दो सेर देंगे; मनोहर और डपटसिंह भी दो-दो सेर दे देंगे। बस हो गया।
कादिर– मैं दो-चार सेर का बीमा नहीं लेता। यह दोनों भैंसें खड़ी हैं। जितना दूध दे दें उतना ले लिया जाय।
दुखरन– मेरी तो दोनों भैंसे गाभिन हैं। बहुत देंगी तो आधा सेर। पुवाल तो खाने को पाती हैं और वह भी आधा पेट। कहीं चराई हैं नहीं, दूध कहाँ से हो?
डपट सिंह– सुक्खू चौधरी जितना देते हैं, उसका आधा मुझसे ले लीजिए। हैसियत के हिसाब से न लीजिएगा।
गौस खाँ– तुम लोगों की यह निहायक बेहूदी आदत है कि हर बात में लाग-डाँट करने लगते हो। शराफत और नरमी से आधा भी न दोगे, लेकिन सख्ती से पूरा लिये हाजिर हो जाओगे। मैंने तुमसे दो सेर कह दिया है; इतना तुम्हें देना होगा।
डपट– इस तरह आप मालिक हैं, भैंसें खेल ले जाइए, लेकिन दो सेर दूध मेरे यहाँ न होगा।
गौस खाँ– मनोहर तुम्हारी भैंसें दुधार हैं?
मनोहर ने अभी जवाब न दिया था कि बलराज बोल उठा– मेरी भैंसें बहुत दुधार हैं, मन भर दूध देती हैं, लेकिन बेगार के नाम से छटाँक भर भी न देंगी।
मनोहर– तू चुपचाप क्यों नहीं रहता? तुमसे कौन पूछता है? हमसे जितना हो सकेगा देंगे, तुमसे मतलब?
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