सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
8 पाठकों को प्रिय 370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
चपरासी ने बलराज की ओर अपमान-जनक क्रोध से देखकर कहा– महतो, अभी हम लोगों के पंजे में नहीं पड़े हो। एक बार पड़ जाओगे तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। मुँह से बातें न निकलेंगी।
दूसरा चपरासी– मालूम होता है, सिर पर गरमी चढ़ गयी है तभी इतना ऐंठ रहा है। इसे लश्कर ले चलो तो गरमी उतर जाय।
बलराज ने मर्माहत होकर कहा– मियाँ, हमारी गरमी पाँच-पाँच रुपल्ली के चपरासियों के मान की नहीं है, जाओ, अपने साहब बहादुर के जूते सीधे करो, जो तुम्हारा काम है; हमारी गरमी के फेर में न पड़ो; नहीं तो हाथ लग जायेंगे। उस जन्म के पापों का दण्ड भोग रहे हो, लेकिन अब भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं?
बलराज ने यह शब्द ऐसी सगर्व गम्भीरता से कहे कि दोनों चपरासी खिसिया– से गये । इस घोर अपमान का प्रतिकार करना कठिन था। यह मानो वाद को वाणी की परिधि से निकालकर कर्म के क्षेत्र में लाने की ललकार थी। व्यंगाघात शाब्दिक कलह की चरम सीमा है। उसका प्रतिकार मुँह से नहीं हाथ से होता है। लेकिन बलराज की चौड़ी छाती और पुष्ट भुजदण्ड देखकर चपरासियों को हाथापाई करने का साहस न हो सका। गौस खाँ से बोला, खाँ साहब, आप इस लौंडे को देखते हैं, कैसा बढ़ा जाता है? इसे समझा दीजिए, हमारे मुँह न लगे। ऐसा न हो शामत आ जाय और छह महीने तक चक्की पीसनी पड़े। हम आप लोगों का मुलाजिमा करते हैं, नहीं तो इस हेकड़ी का मजा चखा देते।
गौस खाँ– सुनते हो मनोहर, अपने बेटे की बात? भला सोचो तो डिप्टी साहब के कानों में यह बात पड़ जाय तो तुम्हारा क्या हाल हो? कहीं एक पत्ती का साया भी न मिलेगा।
मनोहर ने दीनता से खाँ साहब की ओर देखकर कहा– मैं तो इसे सब तरह से समझा-बुझा कर हार गया। न जाने क्या हाल करने पर तुला है? (बलराज से) अरे, तू यहाँ से जायेगा कि नहीं?
बलराज– क्यों जाऊँ, मुझे किसी का डर नहीं है। यह लोग डिप्टी साहब से मेरी शिकायत करने की धमकी देते हैं। मैं आप ही उनके पास जाता हूँ। इन लोगों को उन्होंने कभी ऐसा नादिरशाही हुक्म न दिया होगा कि जाकर गाँव में आग लगा दो। और मान लें कि वह ऐसा कड़ा हुक्म दे भी दें, तो इन लोगों को तो पैसे के लोभ और चपरास के मद ने ऐसा अन्धा बना दिया है कि कुछ सूझता ही नहीं। आज उस बेचारी बुढ़िया का क्या हाल होगा, मरेगी कि जियेगी; नौकरी तो की है पांच रुपये की, काम है बस्ते ढोना, मेज साफ करना, साहब के पीछे-पीछे खिदमतगारों की तरह चलना और बनते हैं रईस!
मनोहर– तू चुप होगा कि नहीं?
एक चपरासी– नहीं, इसे खूब गालियाँ दे लेने दो, जिसमें इसके दिल की हवस निकल जाय। इसका मजा कल मिलेगा। खाँ साहब, आपने सुना है, आपको गवाही देनी पड़ेगी। आपका इतना मुलाजिमा बहुत किया। होगा, दूध का कुछ इन्तजाम करते हैं कि हम लोग जायें?
|