सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
गौस खाँ– नहीं जी, दूध लो, और दस सेर से सेर भर ज़्यादा। यही लोग झख मारेंगे और देंगे। क्या बताएँ आज इस छोकड़े की बदौलत हमको तुम लोगों के सामने इतना शर्मिन्दा होना पड़ा। इस गाँव की कुछ हवा ही बिगड़ी हुई है। मैं खूब समझता हूँ। यह लोग जो भीगी बिल्ली बने बैठे हुए हैं, इन्हीं के शह देने से लौंडे को इतनी जुर्रत हुई है; नहीं तो इसकी मजाल थी कि यों टर्राता। बछड़ा खूँटे के ही बल कूदता है। खैर, अगर मेरा नाम गौस खाँ है तो एक-एक से समझूँगा।
इस तिरस्कार का आशातीत प्रभाव हुआ। सब दहल उठे। वह अभिनय-शीलता, जो पहले सबके चेहरे से झलक रही थी, लुप्त हो गयी। मनोहर तो ऐसा सिटपिटा गया, मानो सैकड़ों जूते पड़े हों। इस खटाई ने सबके नशे उतार दिये।
कादिर खाँ बोल– मनोहर, जाओ, जितना दूध है सब यहाँ भेज दो।
गौस खाँ– हमको मनोहर के दूध की जरूरत नहीं है।
बलराज– यहाँ देता ही कौन है?
मनोहर खिसिया गया। उठा खड़ा हुआ और बोला– अच्छा ले अब तू ही बोल, जो तेरे जी में आये कर, मैं जाता हूँ। अपना घर-द्वार सँभाल मेरा निबाह तेरे साथ न होगा। चाहे घर को रख, चाहे आग लगा दे।
यह कहकर वह सशंक क्रोध से भरा वहाँ से चल दिया। बलराज भी धीरे-धीरे अपने अखाड़े की ओर चला। वहाँ इस समय सन्नाटा था। मुगदर की जोड़ी रखी हुई थी। एक पत्थर की नाल जमीन पर पड़ी हुई थी, और लेजिम आम की डाल से लटक रहा था। बलराज ने कपड़े उतारे और लँगोट कसकर अखाड़े में उतरा लेकिन आज व्यायाम में उसका मन न लगा। चपरासियों की बात एक फोड़े का भाँति उसके हृदय में टीस रही थी। यद्यपि उसने चपरासियों को निर्भय होकर उत्तर दिया था, लेकिन इसे इसमें तनिक भी सन्देह न था कि गाँव के अन्य पुरुषों को, यहाँ तक कि मेरे पिता को भी, मेरी बातें उद्दंड प्रतीत हुईं। सब-के-सब कैसा सन्नाटा खींचे बैठे रहे। मालूम होता था कि किसी के मुंह में जीभ ही नहीं है, तभी तो यह दुर्गति हो रही है! अगर कुछ दम हो तो आज इतने पीसे-कुचले क्यों जाते? और तो और, दादा ने भी मुझी को डांटा। न जाने इनके मन में इतना डर क्यों समा गया है? पहले तो ये इतने कायर न थे। कदाचित् अब मेरी चिन्ता इन्हें सताने लगी। लेकिन मुझे अवसर मिला तो स्पष्ट कह दूँगा कि तुम मेरी ओर से निश्चिंत रहो। मुझे परमात्मा ने हाथ-पैर दिए हैं। मिहनत कर सकता हूँ और दो को खिलाकर खा सकता हूँ। तुम्हें अगर अपने खेत इतने प्यारे हैं कि उनके पीछे तुम अत्याचार और अपमान सहने पर तैयार हो तो शौक से सहो, लेकिन मैं ऐसे खेतों पर लात मारता हूँ। अपने पसीने की रोटी खाऊँगा और अकड़कर चलूँगा। अगर कोई आँख दिखायेगा तो उसकी आँख निकाल लूँगा। यह बुड्ढा गौस खाँ कैसी लाल-पीली आँख कर रहा था, मालूम होता है इनकी मृत्यु मेरे ही हाथों लिखी हुई है। मुझ पर दो चोट कर चुके हैं। अब देखता हूँ कौन हाथ निकालते हैं। इनका क्रोध मुझी पर उतरेगा। कोई चिन्ता नहीं, देखा जायेगा। दोनों चपरासी मन में फूले ही न समाये होंगे की सारा गाँव कैसा रोब में आ गया, पानी भरने को तैयार है। गाँव वालों ने भी लल्लो-चप्पो की होगी, कोई परवाह नहीं। चपरासी मेरा कर ही क्या सकते हैं? लेकिन मुझे कल प्रातःकाल डिप्टी साहब के पास जाकर उनसे सब हाल कह देना चाहिए। विद्वान-पुरुष हैं। दीन जनों पर उन्हें अवश्य दया आयेगी। अगर वह गाड़ियों के पकड़ने की मनाही कर दें तो क्या पूछना? उन्हें यह अत्याचार कभी पसन्द न आता होगा। यह चपरासी लोग उनसे छिपाकर यों जबरदस्ती करते हैं। लेकिन कहीं उन्होंने मुझे अपने इजलास से खड़े-खड़े निकलवा दिया तो? बड़े आदमियों को घमण्ड बहुत होता है। कोई हरज नहीं, मैं सड़क पर खड़ा हो जाऊँगा और देखूँगा कि कैसे कोई मुसाफिरों की गाड़ी पकड़ता है! या तो दो-चार का सिर तोड़ के रख दूँगा या आप वहीं मर जाऊँगा। अब बिना गरम पड़े काम नहीं चल सकता। वह दादा बुलाने आ रहे हैं।
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