सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
फागुन का महीना था। लाला प्रभाशंकर धूमधाम से होली मनाया करते थे। अपने घरवालों के लिए, नये कपड़े लाये, तो ज्ञानशंकर के परिवार के लिए भी लेते आये थे। लगभग पचास वर्षों से वह घर भर के लिए नये वस्त्र लाने के आदी हो गये थे। अब अलग हो जाने पर भी उस प्रथा को निभाते रहना चाहते थे। ऐसे आनन्द के अवसर पर द्वेष-भाव को जाग्रत रखना उनके लिए अत्यन्त दुःखकर था। विद्या ने यह कपड़े तो रख लिये, पर इसके बदले में प्रभाशंकर के लड़कों लड़कियों, और बहू के लिए एक-एक जोड़ी धोती की व्यवस्था की। ज्ञानशंकर ने यह प्रस्ताव सुना तो चिढ़कर बोले– यदि यही करना है तो उनके कपड़े लौटा क्यों नहीं देतीं?
विद्या– भला कपड़े लौटा दोगे तो वह अपने मन में क्या कहेंगे? वह बेचारे तो तुमसे मिलने को दौड़ते हैं और तुम भागे-भागे फिरते हो। तुम्हें रुपये का ही ख्याल है न? तुम कुछ मत देना; मैं अपने पास से दूँगी।
ज्ञान– जब तुम धन्ना सेठों की तरह बातें करने लगती हो तो बदन में आग सी लग जाती है! उन्होंने कपड़े भेजे तो कोई एहसान नहीं किया। दूकानों का साल भर का किराया पेशगी लेकर हड़प चुके हैं। यह चाल इसलिए चल रहे हैं कि मैं मुँह भी न खोल सकूँ और उनका बड़प्पन भी बना रहे। अपनी गाँठ से करते तो मालूम होता।
विद्या– तुम दूसरों की कीर्ति को कभी-कभी ऐसा मिटाने लगते हो कि मुझे तुम्हारी अनुदारता पर दुःख होता है। उन्होंने अपना समझकर उपहार दिया, तुम्हें इसमें उनकी चाल सूझ गयी।
ज्ञान– मुझे भी घर में बैठे सुख-भोग की सामग्रियाँ मिलती तो मैं तुमसे अधिक उदार बन जाता। तुम्हें क्या मालूम है कि मैं आजकल कितनी मुश्किल से गृहस्थी का प्रबन्ध कर रहा हूँ? लखनपुर से जो थोड़ा बहुत मिला उसी में गुजर हो रहा है। किफायत से न चलता तो अब तक सैकड़ों का कर्ज हो गया होता। केवल अदालत के लिए सैकड़ों रुपये की जरूरत है। बेदखली और इजाफे के कागज-पत्र तैयार हैं, पर मुकदमे दायर करने के लिए हाथ में कुछ भी नहीं। उधर गाँव वाले भी बिगड़े हुए हैं, ज्वालासिंह ने अब के दौरे में उन्हें ऐसा सिर चढ़ा दिया कि मुझे कुछ समझते ही नहीं। मैं तो इन चिन्ताओं में मरा जाता हूँ और तुम्हें एक खुराफात सूझा करती है।
विद्या– मैं तुमसे रुपये तो नहीं माँगती!
ज्ञान– मैं अपने और तुम्हारे रुपयों में कोई भेद नहीं समझता। हाँ, जब राव साहब तुम्हारे नाम कोई जायदाद लिख देंगे तो समझने लगूँगा।
विद्या– मैं तुम्हारा एक पैसा नहीं चाहती।
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