सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
8 पाठकों को प्रिय 370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्ञान– माना, लेकिन वहाँ से भी तुम रोकड़ नहीं लाती हो। साल में सौ-पचास रुपये मिल जाते होंगे, इतने पर ही तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं पड़ते। छिछले ताल की तरह उबलने लगती हो।
विद्या– तो क्या चाहते हो कि वह तुम्हें अपना घर उठाकर दे दें?
ज्ञान– वह बेचारे आप तो अघा लें, मुझे क्या देंगे? मैं तो ऐसे आदमी को पशु से गया गुजरा समझता हूं जो आप तो लाखों उड़ाए और अपने निकटतम संबंधियों की बात भी न पूछे। वह तो अगर मर भी जायें तो मेरी आँखों में आँसू न आये।
विद्या– तुम्हारी आत्मा संकुचित है, यह मुझे आज मालूम हुआ।
ज्ञान– ईश्वर का धन्यवाद दो कि मुझसे विवाह हो गया, नहीं तो कोई बात भी न पूछता। लाला बरसों तक दही-दही हाँकते रहे, पर कोई सेंत भी न पूछता था।
विद्यावती इस मर्माघात को न सह सकी, क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा।
वह झमककर वहाँ से चली जाने को उठी कि इतने में महरी ने एक तार का लिफाफा लाकर ज्ञानशंकर के हाथ में रख दिया। लिखा था–
‘‘पुत्र का स्वर्गवास हो गया, जल्द आओ।’’
ज्ञानशंकर ने तार का कागज जमीन पर फेंक दिया और लम्बी साँस खींच कर बोले, हाँ! शोक! परमात्मा, यह तुमने क्या किया!
विद्या ठिठक गयी।
ज्ञानशंकर ने विद्या से कहा– विद्या हम लोगों पर वज्र गिर पड़ा हमारा...
विद्या ने कातर नेत्रों से देखकर कहा– मेरे घर पर तो कुशल है।
ज्ञानशंकर– हाय प्रिये, किस मुँह से कहूँ कि सब कुशल है! वह घर उजड़ गया उस घर का दीपक बुझ गया! बाबू रामानन्द अब इस संसार में नहीं हैं। हा, ईश्वर!!
|