सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
विद्या के मुँह से सहसा एक चीख निकल गयी। विह्वल होकर भूमि पर गिर पड़ी और छाती पीट-पीट कर विलाप करने लगी। श्रद्धा दौड़ी महरियाँ जमा हो गयीं। बड़ी बहू ने रोना सुना तो अपनी बहू और पुत्रियों के साथ आ पहुँची। कमरे में स्त्रियों की भीड़ लग गयी। मायाशंकर माता को रोते देखकर चिल्लाने लगा। सभी स्त्रियों के मुख पर शोक की आभा थी और नेत्रों में करुणा का जल। कोई ईश्वर को कोसती थी, कोई समय की निन्दा करती थी। अकाल मृत्यु कदाचित् हमारी दृष्टि में ईश्वर का सबसे बड़ा अन्याय है। यह विपत्ति हमारी श्रद्धा और भक्ति का नाश कर देती है, हमें ईश्वर-द्रोही बना देती है। हमें उनकी सहन पड़ गयी है। लेकिन हमारी अन्याय पीड़ित आँखें भी यह दारुण दृश्य सहन नहीं कर सकतीं। अकाल मृत्यु हमारे हृदय-पट पर सबसे कठोर दैवी आघात है। यह हमारे न्याय-ज्ञान पर सबसे भयंकर बलात्कार है।
पर हा स्वार्थ संग्राम! यह निर्दय वज्र-प्रहार ज्ञानशंकर को सुखद पुष्प वर्षा के तुल्य जान पड़ा। उन्हें क्षणिक शोक अवश्य हुआ, किन्तु तुरन्त ही हृदय में नयी-नयी आकाँक्षाएँ तरंगें मारने लगीं। अब तक उनका जीवन लक्ष्यहीन था। अब उसमें एक महान् लक्ष्य का विकास हुआ। विपुल सम्पत्ति का मार्ग निश्चित हो गया। ऊसर भूमि में हरियाली लहरें मारने लगीं। राय कमलानन्द के अब और कोई पुत्र न था। दो पुत्रियों में एक विधवा और निःसंतान थी। विद्या को ही ईश्वर ने संतान दी थी और मायाशंकर अब राय साहब का वारिस था। कोई आश्चर्य नहीं कि ज्ञानशंकर को यह शोकमय व्यापार अपने सौभाग्य की ईश्वर कृत व्यवस्था जान पड़ती थी। वह मायाशंकर को गोद में ले कर नीचे दीवानखाने में चले आये और विरासत के संबंध में स्मृतिकारों की व्यवस्था का अवलोकन करने लगे। वह अपनी आशाओं की पुष्टि और शंकाओं का समाधान करना चाहते थे। कुछ दिनों तक कानून पढ़ा था, कानूनी किताबों का उनके पास अच्छा संग्रह था। पहले, मनु-स्मृति खोली, सन्तोष न हुआ। मिताक्षरा का विधान देखा, शंका और भी बड़ी याज्ञवल्क्य ने भी विषय का कुछ सन्तोषप्रद स्पष्टीकरण न किया। किसी वकील की सम्मत्ति आवश्यक जान पड़ी। वह इतने उतावले हो रहे थे कि तत्काल कपड़े पहन कर चलने को तैयार हो गये। कहार से कहा, माया को ले जा, बाजार की सैर करा ला। कमरे से बाहर निकले ही थे कि याद आया, तार का जवाब नहीं दिया। फिर कमरे में गये, संवेदना का तार लिखा, इतने में लाला प्रभाशंकर और दयाशंकर आ पहुँचे, ज्ञानशंकर को इस समय उनका आना जहर-सा लगा। प्रभाशंकर बोले– मैंने तो अभी सुना। सन्नाटे में आ गया। बेचारे रायसाहब को बुढ़ापे यह बुरा धक्का लगा। घर ही वीरान हो गया।
ज्ञानशंकर– ईश्वर की लीला विचित्र है!
प्रभाशंकर– अभी उम्र ही क्या थी! बिलकुल लड़का था। तुम्हारे विवाह में देखा था, चेहरे से तेज बरसता था। ऐसा प्रतापी लड़का मैंने नहीं देखा।
ज्ञानशंकर– इसी से तो ईश्वर के न्याय-विधान पर से विश्वास उठ जाता है।
दयाशंकर– आपकी बड़ी साली के तो कोई लड़का नहीं है न?
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