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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


गायत्री उन स्त्रियों में न थी जिसके लिए पुरुषों का हृदय एक खुला हुआ पृष्ठ होता है। उसका पति एक दुराचारी मनुष्य था, पर गायत्री को कभी उस पर सन्देह नहीं हुआ, उसके मनोभावों की तह तक कभी नहीं पहुँची और यद्यपि उसे मरे हुए तीन साल बीत चुके थे, पर वह अभी तक आध्यात्मिक श्रद्धा से उसकी स्मृति की आराधना किया करती थी। उसका निष्फल हृदय वासनायुक्त प्रेम के रहस्यों से अनभिज्ञ था। किन्तु इसके साथ ही सगर्वता उसके स्वभाव का प्रधान अंग थी। वह अपने को उससे कहीं ज्यादा विवेकशील और मर्मज्ञ समझती थी, जितनी वह वास्तव में थी। उसके मनोवेग और विचार जल के नीचे बैठनेवाले रोड़े नहीं, सतह पर तैरने वाले बुलबुले थे। ज्ञानशंकर एक रूपवान, सौम्य, मृदुमुख मनुष्य थे। गायत्री सरल भाव से इन गुणों पर मुग्ध थी। वह उनसे मुस्कराकर कहती, तुम्हारी बातों में जादू है, तुम्हारी बातों से कभी मन तृप्त नहीं होता। ज्ञानशंकर के सम्मुख विद्या से कहती, ऐसा पति पाकर भी तू अपने भाग्य को नहीं सराहती? यद्यपि ज्ञानशंकर उससे दो-चार ही मास छोटे थे, पर उसकी छोटी बहन के पति थे, इसलिए वह उन्हें छोटे भाई के तुल्य समझती थी। वह उनके लिए अच्छे-अच्छे भोज्य पदार्थ आप बनाती, दिन में कई बार जलपान करने के लिए घर में बुलाती थी। उसे धार्मिक और वैज्ञानिक विषयों से विशेष रुचि थी। ज्ञानशंकर से इसी विषय की बातें करने और सुनने में उसे हार्दिक आनन्द प्राप्त होता था। वह साली के नाते से प्रथानुसार उनसे दिल्लगी भी करती उन पर भावमय चोटें करती और हँसती थी। मुँह लटकाकर उदास बैठना उसकी आदत न थी। वह हँस मुख, विनयशील, सरल-हृदय, विनोद-प्रिया रमणी थी, जिसके हृदय में लीला और क्रीड़ा के लिए कहीं जगह न थी।

किन्तु उसका यह सरल-सीधा व्यवहार ज्ञानशंकर की मलिन दृष्टि में परिवर्तित हो जाता था। उज्जवलता में वैचित्र्य और समता में विषमता दीख पड़ती थी। उन्हें गायत्री संकेत द्वारा कहती हुई मालूम होती, ‘आओ, इस उजड़े हुए हृदय को आबाद करो। आओ, इस अन्धकारमय कुटीर को आलोकित करो।’ इस प्रेमाह्वान का अनादर करना उनके लिए असाध्य था। परन्तु स्वयं उनके हृदय ने गायत्री को यह निमन्त्रण नहीं दिया, कभी अपना प्रेम उस पर अर्पण नहीं किया– उन्हें बहुधा क्लब में देर हो जाती, ताश की बाजी अधूरी न छोड़ सकते थे, कभी सैर-सपाटे में विलम्ब हो जाता, किन्तु वह स्वयं विकल न होते, यही सोचते कि गायत्री विकल हो रही होगी। अग्नि गायत्री के हृदय में जलती थी, उन्हें केवल उसमें हाथ सेंकना था। उन्हें इस प्रयास में वही उल्लास होता था, जो किसी शिकारी को शिकार में, किसी खिलाड़ी को बाजी की जीत में होता है। वह प्रेम न था, वशीकरण की इच्छा थी। इस इच्छा और प्रेम में बड़ा भेद है, इच्छा अपनी ओर खींचती है, प्रेम स्वयं खिंच जाता है। इच्छा में ममत्व है, प्रेम में आत्मसर्पण। ज्ञानशंकर के हृदयस्थल में यही वशीकरण-चेष्टा किलोलें कर रही थी।

गायत्री भोली सही, अज्ञान सही, पर शनैःशनैः उसे ज्ञानशंकर से लगाव होता जाता था। यदि कोई भूलकर भी विष खा ले, तो उसका असर क्या कुछ कम होगा। ज्ञानशंकर को बाहर से आने में देर होती, तो उसे बेचैनी होने लगती, किसी काम में जी नहीं लगता, वह अटारी पर चढ़कर उनकी बाट जोहती। वह पहले विद्यावती के सामने हँस-हँस कर उनसे बातें करती थी, कभी उनसे अकेले भेंट हो जाती तो उसे कोई बात ही न सूझती थी। अब वह अवस्था न थी। उसकी बात अब एकान्त की खोज में रहती। विद्या की उपस्थिति उन दोनों को मौन बता देती थी। अब वह केवल वैज्ञानिक तथा धार्मिक तथा धार्मिक चर्चाओं पर आबद्ध न होते। बहुधा स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध की मीमांसा किया करते और कभी-कभी ऐसे मार्मिक प्रसंगों का सामना करना पड़ता कि गायत्री लज्जा से सिर झुका लेती।

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