सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
एक दिन सन्ध्या समय गायत्री बगीचे में आरामकुर्सी पर लेटी हुई एक पत्र पढ़ रही थी, जो अभी डाक से आया था। यद्यपि लू का चलना बन्द हो गया था, पर गर्मी के मारे बुरा हाल था। प्रत्येक वस्तु से ज्वाला-सी निकल रही थी। वह पत्र को उठाती थी और फिर गर्मी से विकल होकर रख देती थी। अन्त में उसने एक परिचारिका को पंखा झलने के लिए बुलाया और अब पत्र को पढ़ने लगी। उसके मुख्तारआम ने लिखा था, सरकार यहाँ जल्द आयें। यहाँ कई ऐसे मामले आ पड़े हैं जो आपकी अनुमति के बिना तै नहीं हो सकते। हरिहरपुर के इलाके में बिल्कुल वर्षा नहीं हुई, यह आपको ज्ञात ही है। अब वहाँ के असामियों से लगान वसूल करना अत्यन्त कठिन हो रहा है। वह सोलहों आने छूट की प्रार्थना करते हैं। मैंने जिलाधीश से इस विषय में अनुरोध किया, पर उसका कुछ फल न हुआ। वह अवश्य छूट कर देंगे। यदि आप आकर स्वयं जिलाधीश से मिलें तो शायद सफलता हो। यदि श्रीमान राय साहब यहाँ पधारने का कष्ट उठायें तो निश्चय ही उनका प्रभाव कठिन को सुगम कर दे। असामियों के इस आन्दोलन से हलचल मची हुई है। शंका है कि छूट न हुई तो उत्पात होने लगेगा। इसलिए आपका जिलाधीश साक्षात करना परमावश्यक है।
गायत्री सोचने लगी, यहीं ज़मींदारी क्या है, जी का जंजाल है। महीने में आध महीने के लिए भी कहीं जाऊँ तो हाय-हाय-सी होने लगती है। असामियों में यह धुन न जाने कैसे समा गयी, कि जहाँ देखो वहीं उपद्रव करने पर तैयार दिखाई देते हैं। सरकार को इन पर कड़ा हाथ रखना चाहिए। जरा भी शह मिली और यह काबू से बाहर हुए। अगर इस इलाके में असामियों की छूट हो गयी तो मेरा २०-२५ हजार का नुकसान हो जायेगा। इसी तरह और इलाके में भी उपद्रव के डर से छूट हो जाये तो मैं तो कहीं की न रहूँ कुछ वसूल न होगा तो मेरा खर्च कैसे चलेगा? माना कि मुझे उस इलाके की मालगुजारी न देनी पड़ती, पर और भी तो कितने ही रुपये पृथक-पृथक नामों से देने पड़ते हैं, वह तो देने ही पड़ेंगे। वह किसके घर से आवेंगे? छूट भी हो जाय, मगर लूँगी असामियों से ही।
पर मेरा जी वहाँ कैसे लगेगा। यह बातें वहाँ कहाँ सुनने को मिलेंगी, अकेले पड़े-पड़े जी उकताया करेगा। जब तक ज्ञानशंकर यहाँ रहेंगे तब तक तो मैं गोरखपुर जाती नहीं। हाँ, जब वह चले जायेंगे तो मजबूरी है। नुकसान ही न होगा? बला से। जीवन के दिन आनन्द से तो कट रहे हैं, धर्म और ज्ञान की चर्चा सुनने में आती है। कल बाबू साहब मुझसे चिढ़ गये होंगे, लेकिन मेरा मन तो अब भी स्वीकार नहीं करता कि विवाह केवल एक शारीरिक सम्बन्ध और सामाजिक व्यवस्था है। वह स्वयं कहते हैं कि मानव शरीर का कई सालों सम्पूर्णतः रूपान्तर हो जाता है। शायद आठ वर्ष कहते थे। यदि विवाह केवल दैहिक सम्बन्ध हो तो इस नियमित समय के बाद उसका अस्तित्व ही नहीं रहता। इसका तो यह आशय है कि आठ वर्षों के बाद पति और पत्नी इस धर्म-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, एक का दूसरे पर कोई अधिकार नहीं रहता। आज फिर यही प्रश्न उठाऊँगी। लो, आप ही आ गये ।
बोली– कहिए कहीं जाने को तैयार हैं क्या?
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