लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


यह निश्चय करके वह बैठी। लेकिन जब अपने आगे-पीछे दृष्टि पड़ी तो उसे वहाँ एक पल भी बैठना दुस्तर जान पड़ा। समस्त जनाना भाग वेश्याओं से भरा हुआ था। एक-से-एक सुन्दर, एक-से-एक रंगीन। चारों ओर से खस और मेंहँदी की लपटें आ रही थीं। उनका आभरण और श्रृंगार, उनका ठाट-बाट, उनके हाव-भाव, उनकी मन्द-मुस्कान, सब गायत्री को घृणोत्पादक प्रतीत होते थे। उसे भी अपने रूप-लावण्य पर घमंड था, पर इस सौन्दर्य-सरोवर में वह एक जल-कण के समान विलीन हो गयी थी। अपनी तुच्छता का ज्ञान उसे और भी व्यक्त करने लगा। यह कुलटाएँ कितनी ढीठ, कितनी निर्लज्ज हैं। इसकी शिकायत नहीं कि इन्होंने क्यों ऐसे पापमय, ऐसे नारकीय पथ पर पग रखा। यह अपने पूर्व कर्मों का फल है। दुरवस्था जो न कराये थोड़ा; लेकिन वह अभिमान क्यों? ये इठलाती किस बिरते पर हैं? इनके रोम-रोम से दीनता और लज्जा टपकनी चाहिए थी। पर यह ऐसी प्रसन्न हैं मानो संसार में इनसे सुखी और कोई है ही नहीं। पाप एक करुणाजनक वस्तु है, मानवीय विवशता का द्योतक है। उसे देखकर दया आती है, लेकिन पाप के साथ निर्लज्जता और मदान्धता एक पैशाचिक लीला है, दया और धर्म की सीमा से बाहर।

गायत्री अब पल भर भी न ठहर सकी। ज्ञानशंकर से बोली– मैं बाहर जाती हूँ, यहाँ नहीं बैठा जाता, मुझे घर पहुँचा दीजिए।

उसे संशय था कि ज्ञानशंकर वहाँ ठहरने के लिए आग्रह करेंगे। चलेंगे भी तो क्रुद्ध होकर। पर यह बात न थी। ज्ञानशंकर सहर्ष उठ खड़े हुए। बाहर आकर एक बग्धी किराये पर की और घर चले।

गायत्री ने इतनी जल्द थिएटर से लौट आने के लिए क्षमा माँगी। फिर वेश्याओं की बेशरमी की चर्चा की, पर ज्ञानशंकर ने कुछ उत्तर न दिया। उन्होंने आज मन में एक विषम कल्पना की थी और इस समय उसे कार्य रूप में लाने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को इस प्रकार एकाग्र कर रहे थे, मानो किसी नदी में कूद रहे हों। उनका हृदयाकाश मनोविकार की काली घटाओं से आच्छादित हो रहा था, जो इधर महीनों से जमा हो रही थीं। वह ऐसे ही अवसर की ताक में थे। उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थिर कर लिया। लक्षणों से उन्हें गायत्री के सहयोग का भी निश्चय होता जाता था। उसका थिएटर देखने पर राजी हो जाना, विद्या के साथ घर न लौटना, उनके साथ अकेले बग्घी में बैठना इसके प्रत्यक्ष प्रमाण थे। कदाचित् उन्हें अवसर देने के ही लिए वह इतनी जल्द लौटी थीं, क्योंकि घर की फिटन पर लौटने से काम के विघ्न पड़ने का भय था। ऐसी अनुकूल दशा में आगा-पीछा करना उनके विचार में वह कापुरुषता थी, जो अभीष्ट सिद्धि की घातक है। उन्होंने किताबों में पढ़ा था कि पुरुषोचित उद्दंडता वशीकरण का सिद्धमन्त्र है। तत्क्षण उनकी विकृत-चेष्टा प्रज्वलित हो गयी, आँखों से ज्वाला निकलने लगी, रक्त खौलने लगा, साँस वेग से चलने लगी। उन्होंने अपने घुटने से गायत्री की जाँघ में एक ठोंका दिया। गायत्री ने तुरन्त पैर समेट लिए, उसे कुचेष्टा की लेश-मात्र भी शंका न हुई। किन्तु एक क्षण के बाद ज्ञानशंकर ने अपने जलते हुए हाथ से उसकी कलाई पकड़कर धीरे से दबा दी। गायत्री ने चौंककर हाथ खींच लिया, मानो किसी विषधऱ ने काट खाया हो, और भयभीत नेत्रों से ज्ञानशंकर को देखा। सड़क पर बिजली की लालटेनें जल रही थीं। उनके प्रकाश में ज्ञानशंकर के चेहरे पर एक संतप्त उग्रता, एक प्रदीप्त दुस्साहस दिखाई दिया। उसका चित्त अस्थिर हो गया, आँखों में अन्धेरा छा गया। सारी देह पसीने से तर हो गयी। उसने कातर नेत्रों से बाहर की ओर झाँका। समझ न पड़ा कि कहाँ हूँ, कब घर पहुँचूँगी। निर्बल क्रोध की एक लहर नसों में दौड़ गयी और आँखों से बह निकली। उसे फिर ज्ञानशंकर की ओर ताकने का साहस न हुआ। उनसे कुछ कह न सकी। उसका क्रोध भी शान्त हो गया। वह संज्ञाशून्य हो गयी, सारे मनोवेग शिथिल पड़ गये। केवल आत्मवेदना का ज्ञान आरे के समान हृदय को चीर रहा था। उसकी वह वस्तु लुट गयी जो जान से भी अधिक प्रिय थी, जो उसने मन की रक्षक, उसके आत्म-गौरव की पोषक धैर्य का आधार और उसके जीवन का अवलम्ब थी। उसका जी डूबा जाता था। सहसा उसे जान पड़ा कि अब मैं किसी को मुँह दिखाने के योग्य नहीं रही। अब तक उसका ध्यान अपने अपमान के इस बाह्य स्वरूप की ओर नहीं गया था। अब उसे ज्ञात हुआ कि यह केवल मेरा आत्मिक पतन ही नहीं है, उसने मेरी आत्मा को कलुषित नहीं किया, वरन् मेरी बाह्य प्रतिष्ठा का भी सर्वनाश कर दिया। इस अवगति ने उसके डूबते हुए हृदय को थाम लिया। गोली खाकर दम तोड़ता हुआ पक्षी भी छुरी को देखकर तड़प जाता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book