सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
गायत्री जरा सँभल गयी, उसने ज्ञानशंकर की ओर सजल आँखों से देखा। कहना चाहती थी, जो कुछ तुमने किया उसका बदला तुम्हें परमात्मा देंगे। लेकिन यदि सौजन्यता का अल्पांश भी रह गया है तो मेरी लाज रखना, सतीत्व का नाश तो हो गया पर लोक सम्मान की रक्षा करना, किन्तु शब्द न निकले, अश्रु-प्रवाह में विलीन हो गये।
ज्ञानशंकर को भी मालूम हो गया कि मैंने धोखा खाया। मेरी उद्विग्नता ने सारा काम चौपट कर दिया अभी तक उन्हें अपनी अधोगति पर लज्जा न आयी थी पर गायत्री की सिसकियाँ सुनीं तो हृदय पर चोट-सी लगी। अन्तरात्मा जाग्रत हो गयी, शर्म से गर्दन झुक गयी। कुवासना लुप्त हो गयी। अपने पाप की अधमता का ज्ञान हुआ। ग्लानि और अनुपात के भी शब्द मुँह तक आये, पर व्यक्त न हो सके। गायत्री की ओर देखने का भी हौसला न पड़ा। अपनी मलिनता और दुष्टता अपनी ही दृष्टि में ही मालूम होने लगी। हा! मैं कैसा दुरात्मा हूँ। मेरे विवेक, ज्ञान और सद्विचार ने आत्महिंसा के सामने सिर झुका दिया। मेरी उच्चशिक्षा और उच्चादर्श का यही परिणाम होना था! अपने नैतिक पतन के ज्ञान ने आत्म-वेदना का संचार कर दिया। उनकी आँखों से आँसू की धारा प्रवाहित हो गयी।
दोनों प्राणी खिड़कियों से सिर निकाले रोते रहे, यहाँ तक कि गाड़ी घर पर पहुँच गयी।
११
आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की जगह आँसुओं का संचार हो रहा था।
आधी रात बीत गयी, पर उसके आँसू न थमें। उसका आत्मगौरव आज नष्ट हो गया। पति-वियोग के बाद उसकी सुदृढ़ स्मृति ही गायत्री के जीवन-सुख की नींव थी। वही साधु-कल्पना उसकी उपास्य थी। वह इस हृदय-कोष को, जहाँ यह अमूल्य रत्न संचित था, कुटिल आकांक्षाओं की दृष्टि से बचाती रहती थी। इसमें सन्देह नहीं कि वह वस्त्राभूषणों से प्रेम रखती थी, उत्तम भोजन करती थी और सदैव प्रसन्नचित्त रहती थी, किन्तु इसका कारण उसकी विलासप्रियता नहीं, वरन् अपने सतीत्व का अभिमान था। उसे संयम और आचार का स्वांग भरने से घृणा थी। वह थिएटर भी देखती थी आनन्दोत्सवों में भी शरीक होती थी। आभरण, सुरुचि और मनोरंजन की सामग्रियों का त्याग करने की वह आवश्यकता न समझती थी, क्योंकि उसे अपनी चित्तस्थिति पर विश्वास था। वह एकाग्र होकर अपने इलाके का प्रबन्ध करती थी।
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