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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


जब उसके आँसू थमे तो वह इस दुर्घटना के कारण और उत्पति पर विचार करने लगी और शनैः-शनैः उसे विदित होने लगा कि इस विषय में मैं सर्वथा निरपराध नहीं हूँ। ज्ञानशंकर कदापि यह दुस्साहस न कर सकते, यदि उन्हें मेरी दुर्बलता पर विश्वास न होता। उन्हें यह विश्वास क्योंकर हुआ? मैं इन दिनों उनसे बहुत स्नेह करने लगी थी। यह अनुचित था। कदाचित् इसी सम्पर्क ने उनके मन में यह भ्रम अंकुरित किया। तब उसे वह बातें याद आतीं जो उन संगतों में हुआ करती थीं। उनका झुकाव उन्हीं विषयों की ओर होता था, जिन्हें एकान्त और संकोच की जरूरत है। उस समय वह बातें सर्वथा दोष रहित जान पड़ती थीं, पर अब उनके विचार से ही गायत्री को लज्जा आती थी। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं अज्ञात दशा में धीरे-धीरे ढाल की ओर चली जाती थी और अगर गहरी खाई सहसा न आ पड़ती, तो मुझे अपने पतन का अनुभव ही न होता। उसे आज मालूम हुआ कि मेरा पति-प्रेम-बन्धन जर्जर हो गया, नहीं तो मैं इन वार्ताओं के आकर्षण से सुरक्षित रहती। वह अधीर होकर उठी और अपने पति के सम्मुख जाकर खड़ी हो गयी। इस चित्र को वह सदैव अपने कमरे में लटकाये रहती थी उसने ग्लानिमय नेत्रों से चित्र को देखा और तब काँपते हुए हाथों से उतार कर छाती से लगाये देर तक खड़ी रोती रही। इस आत्मिक आलिंगन से उसे एक विचित्र सन्तोष प्राप्त हुआ। ऐसा मालूम हुआ कोई तड़पते हुए हृदय पर मरहम रख रहा है और कितने कोमल हाथों से। वह उस चित्र को अलग न कर सकी, उसे छाती से लगाये हुए बिछावन पर लेट गयी। उसका हृदय इस समय पति-प्रेम से आलोकित हो रहा था। वह एक समाधि की अवस्था में थी। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि यद्यपि पतिदेव यहाँ अदृश्य हैं, तथापि उनकी आत्मा अवश्य यहाँ भ्रमण कर रही है। शनैःशनैः उसकी कल्पना सचित्र हो गयी। वह भूल गयी कि मेरे स्वामी को मरे तीन वर्ष व्यतीत हो गये। वह अकुला कर उठ बैठी। उसे ऐसा जान पड़ा कि उनके वक्ष से रक्त स्रावित हो रहा है और कह रहे हैं, यह तुम्हारी कुटिलता का घाव है। तुम्हारी पवित्रता और सत्यता मेरे लिए रक्षास्त्र थी। वह ढाल आज टूट गयी और बेवफाई की कटार हृदय में चुभ गयी। मुझे तुम्हारे सतीत्व पर अभिमान था। वह अभिमान आज चूर-चूर हो गया। शोक! मेरी हत्या उन्हीं हाथों से हुई जो कभी मेरे गले में पड़े थे। आज तुमसे नाता टूटता है, भूल जाओ कि मैं कभी तुम्हारा पति था।’ गायत्री स्वप्न दशा में उसी कल्पित व्यक्ति के सम्मुख हाथ फैलाये हुए विनय कर रही थी। शंका से उसके हाथ-पाँव फूल गये और वह चीख मार भूमि पर गिर पड़ी।

वह कई मिनट तक बेसुध पड़ी रही। जब होश आया तो देखा कि विद्या लौंडियाँ, महरियाँ सब जमा हैं और डॉक्टर को बुलाने के लिए आदमी दौड़ाया जा रहा है।

उसे आँखें खोलते देखकर विद्या ‘झपटकर उसके गले से लिपट गयी और बोली– बहन तुम्हें क्या हो गया था? और तो कभी ऐसा न हुआ था!

गायत्री– कुछ नहीं, एक बुरा स्वप्न देख रही थी। लाओ, थोड़ा-सा पानी पीऊँगी, गला सूख रहा है।

विद्या– थिएटर में कोई भयानक दृश्य देखा होगा।

गायत्री– नहीं, मैं भी तुम्हारे आने के थोड़ी ही देर पीछे चली आयी थी। जी नहीं लगा। अभी थोड़ी ही रात गयी है क्या? बाबूजी ध्रुपद अलाप रहे हैं।

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