सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
उन्होंने कुछ जवाब न दिया। राय साहब को भी इन बातों के कहने का खेद हुआ। ज्ञानशंकर का मन रखने के लिए इधर-उधर की बातें करने लगे। नैनीताल का भी जिक्र आ गया। उन्होंने अपने साथ चलने को कहा। ज्ञानशंकर राजी हो गये । इसमें दो लाभ थे। एक तो वह राय साहब को नजरबन्द कर सकेंगे दूसरे, वह उच्चाधिकारियों पर अपनी योग्यता का सिक्का बिठा सकेंगे। सम्भव है, राय साहब की सिफारिश उन्हें किसी ऊँचे पद पर पहुँचा दे। यात्रा की तैयारियाँ करने लगे।
१३
यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौंडे ने डिप्टी साहब पर न जाने क्या जादू कर दिया कि उनकी काया ही पलट गयी। ईधन, पुआल, हाँडी, बर्तन, दूध, दही, मांस-मछली साग-भाजी सभी चीजें बेगार में लेने को मना करते हैं। तब तो हमारा गुजारा हो चुका। ऐसा भत्ता ही कौन बहुत मिलता है। यह लौंडा एक ही पाजी निकला। एक तो हमें फटकारें सुनायीं, उस पर यह और रद्दा जमा गया। चलकर डिप्टी साहब से कह देना चाहिए। आज यह दुर्दशा हुई है, दूसरे गाँव में इससे भी बुरा हाल होगा। हम लोग पानी को तरस जायेंगे। अतएव ज्योंही ज्वालासिंह लौटकर आये सब-के-सब उनके सामने जाकर खड़े हो गये। ईजाद हुसेन को फिर उनका मुख-पात्र बनना पड़ा।
ज्वालासिंह ने रुष्ट भाव से देख कर पूछा– कहिए आप लोग कैसे चले? कुछ कहना चाहते हैं? मीर साहब आपने इन लोगों को मेरा हुक्म सुना दिया है न?
ईजाद हुसेन– जी हाँ, यही हुक्म सुनकर तो यह लोग घबराये हुए आपकी खिदमत में हाजिर हुए हैं। कल इस गाँव में एक सख्त वारदात हो गयी। गाँव के लोग चपरासियों से लड़ने पर आमादा हो गये। ये लोग जान बचाकर चले न आये होते तो फौजदारी हो जाती। इन लोगों ने इसकी इत्तला करके हुजूर के आराम में खलल डालना मुनासिब नहीं समझा, लेकिन आज की मुमानियत सुनकर इनके होश उड़ गये हैं। पहले ही बेगार आसानी से न मिलती थी, अब बानी-मबानी वही नौजवान था जो सुबह हुजूर की खिदमत में हाजिर हुआ था। उसकी कुछ तस्बीह होनी निहायत जरूरी है।
ज्वालासिंह– उसकी बातों से तो मालूम होता था कि चपरासियों ने ही उसके साथ सख्ती की थी।
एक चपरासी– वह तो कहेगा ही, लेकिन खुदा गवाह है, हम लोग भाग न आये होते तो जान की खैर न थी। ऐसी ज़िल्लत आज तक कभी न हुई थी। हम लोग चार-चार पैसे के मुलाजिम हैं, पर हाकिमों के इकबाल से बड़ों-बड़ों की कोई हकीकत नहीं समझते।
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