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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


डपट– तुम्हें बचाने के लिए हमने कौन-सी बात उठा रखी? ऐसा बयान दिया कि बलराज पर कोई दाग नहीं आ सकता था, पर भाई मुचलका तो नहीं दे सकते। आज मुचलका दे दें, कल को गौस खाँ झूठो कोई सवाल दे दे तो सजा हो जाय।

मनोहर– नहीं भैया, मुचलका देने को मैं आप ही न कहूँगा डपटसिंह मनोहर के सदिच्छुक थे, पर इस समय उसे प्रकट न कर सकते थे। बोले, परमात्मा बैरी को भी कपूत सन्तान न दे। बलराज ने कील झूठ-मूठ बतबढ़ाव न किया होता तो तुम्हें क्यों इस तरह लोगों की चिरौरी करनी पड़ती।

हठात् कादिर खाँ की आवाज यह कहते हुए सुनाई दी, बड़ा न्याय करते हो ठाकुर, बलराज ने झूठ-मूठ बतबताव किया था तो उसी घड़ी में डाँट क्यों न दिया? तब तो तुम भी बैठे मुस्कराते रहे और आँखों से इस्तालुक देते रहे। आज जब बात बिगड़ गई है तो कहते हो झूठ-मूठ बतबढ़ाव किया था। पहले तुम्हीं ने अपनी लड़की का रोना-रोया था, मैंने अपनी रामकहानी कही थी। यही सब सुन-सुन कर बलराज भर बैठा था। ज्यों ही मौका मिला, खुल पड़ा। हमने और तुमने रो-रोकर बेगार की, पर डर के मारे मुँह न खोल सके। वह हिम्मत का जवान है, उससे बरदास न हुई। वह जब हम सभी लोगों की खातिर आगे बढ़ा तो यह कहाँ का न्याय है कि मुचलके के डर से उसे आग में झोंक दें?

डपटसिंह ने विस्मित होकर कहा– तो तुम्हारी सलाह है कि मुचलका दे दिया जाय?

कादिर– नहीं मेरी सलाह नहीं है। मेरी सलाह है कि हम लोग अपने-अपने बयान पर डटे रहें। अभी कौन जानता है कि मुचलका देना ही पड़ेगा। लेकिन अगर ऐसा हो तो हमें पीठ न फेरनी चाहिए। भला सोचो, कितना बड़ा अन्धेर है कि हम लोग मुचलके के डर से अपने बयान बदल दें। अपने ही लड़के को कुएँ में ढकेल दें।

मनोहर ने कादिर मियाँ को अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा। उसे ऐसा जान पड़ा मानो यह कोई देवता है। कादिर की सम्मति जो साधारण न्याय पर स्थिर थी, उसे अलौकिक प्रतीत हुई। डपटसिंह को भी यह सलाह सयुक्तिक ज्ञात हुई। मुचलके की शंका कुछ कम हुई। मन में अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हुए, तिस पर भी मन से यह विचार न निकल सका कि प्रस्तुत विषय का सारा भार बलराज के सिर है। बोले-कादिर भाई, यह तो तुम नाहक कहते हो कि मैंने बलराज को इस्तालुक दिया। मैंने बलराज से कब कहा कि तुम लस्कर वालों से तूलकलाम करना। यह रार तो उसने आप ही बढ़ायी। उसका स्वभाव ही ऐसा कड़ा ठहरा। आज को सिपाहियों से उलझा है, कल को किसी पर हाथ ही चला दे तो हम लोग कहाँ तक उसकी हिमायत करते फिरेंगे?

कादिर– तो मैं तुमसे कब कहता हूँ कि उसकी हिमायत करो। वह बुरी राह चलेगा तो आप ठोकर खाएगा। मेरा कहना यही है कि हम लोग अपनी आँखों की देखी और कानों की सुनी बातों में किसी के भय से उलट-फेर न करें। अपनी जान बचाने के लिए फरेब न करें। मुचलके की बात ही क्या, हमारा धरम है कि अगर सच कहने के लिए जेहल भी जाना पड़े तो सच से मुँह न मोड़ें।

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