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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


डपटसिंह को अब निकलने का कोई रास्ता न रहा, किन्तु फिर भी इस निश्चय को व्यावहारिक रूप में मानने का कोई सम्भावित मार्ग निकल आने की आशा बनी हुई थी। बोले– अच्छा मान लो हम और तुम बयान पर अड़े रहे, लेकिन बिसेसर और दुखरन को क्या करोगे? वह किसी विध न मानेंगे।

कादिर– उनको भी खींचे लाता हूँ, मानेंगे कैसे नहीं। अगर अल्लाह का डर है तो कभी निकल ही नहीं सकते।

यह कहकर कादिर खाँ चले गये और थोड़ी देर में दोनों आदमियों को साथ लिये आ पहुँचे। बिसेसर साह ने तो आते ही डपटसिंह की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से आँखें नचा कर देखा, मानों पूछना चाहते थे कि तुम्हारी क्या सलाह है, और दुखरन भगत, जो दोनों जून मन्दिर में पूजा करने जाया करते थे। और जिन्हें राम-चर्चा से कभी तृप्ति न होती थी, इस तरह सिर झुकाकर बैठ गये, मानों उन पर वज्रपात हो गया है या कादिर खाँ उन्हें किसी गहरी खोह में गिरा रहे हैं।

इन्हें यहाँ बैठाकर कादिर खाँ ने अपनी पगड़ी से थोड़ी-सी तमाखू निकाली, अलाव से आग लाये और दो-तीन दम लगाकर चिलम को डपटसिंह की ओर बढ़ाते हुए बोले– कहो भगत, कल दरोगा जी के पास चलकर क्या करना होगा।

दुखरन– जो तुम लोग करोगे वही मैं भी करूँगा, हाँ, मुचलका न देना पड़े। कादिर ने फिर उसी युक्ति से काम लिया, जो डपटसिंह को समाधान करने में सफल हुई थी! सीधे किसान वितण्डावादी नहीं होते। वास्तव में इन लोगों के ध्यान में यह बात ही न आयी थी कि बयान का बदलना प्रत्यक्ष जाल है। कादिर खाँ ने इस विषय का निदर्शन किया तो उन लोगों की सरल सत्य-भक्ति जाग्रत हो गयी। दुखरन शीघ्र ही उनसे सहमत हो गये। लेकिन कारबार होता था। डेवढ़ी-सवाई चलती थी, लेन-देन करते थे, दो हल की खेती होती थी, गाँजा-भाँग, चरस आदि का ठीका भी ले लिया था, पर उनका भेष-भाव उन्हें अधिकारियों के पंजे से बचाता रहता था। बोले– भाई, तुम लोगों का साथ देने में मैं कहीं का न रहूँगा, चार पैसे का लेन-देन है। नरमी-गरमी, डाँट-डपट किये बिना काम नहीं चल सकता। रुपये लेते समय तो लोग सगे भाई बन जाते हैं, पर देने की बारी आती है तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता। यह रोजगार ही ऐसा है कि अपने घर की जमा देकर दूसरों से बैर मोल लेना पड़ता है। आज मुचलका हो जाए, कल को कोई मामला खड़ा हो जाए, तो गाँव में सफाई के गवाह तक न मिलेंगे और फिर संसार में रहकर अधर्म से कहाँ तक बचेंगे? यह तो कपट लोक है। अपने मतलब के लिए दंगा, फरेब, जाल सभी कुछ करना पड़ता है। आज धर्म का विचार करने लगूँ, तो कल ही सौ रुपये साल का टिकट बंध जाय, असामियों से कौड़ी न वसूल हो और सारा कारबार मिट्टी में मिल जाय। इस जमाने में जो रोजगार रह गया है इसी बेईमानी का रोजगार है। क्या हम हुए, क्या तुम हुए, सबका एक ही हाल है, सभी सन् की गाँठों में मिट्टी और लकड़ी भरते हैं, तेलहन और अनाज में मिट्टी और कंकर मिलाते हैं। क्या यह बेईमानी नहीं है? अनुचित बात कहता होऊँ तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो। तुम लोगो को जैसा गौं पड़े वैसा करो, पर मैं मुचलका देने पर किसी तरह राजी नहीं हो सकता।

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