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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


मनोहर– मैं तो अब नहीं जाऊँगा।

बिलासी– क्यों?

मनोहर– क्यों क्या, अपनी खुशी है। जायें क्या, अपने ऊपर तालियाँ लगवायें ?

बिलासी– अच्छा, तो मुझे जाने दोगे?

मनोहर– तुम्हें भी नहीं जाने दूँगा। कारिन्दा हमारा कर ही क्या सकता है? बहुत करेगा अपना सिकमी खेत छोड़ा लेगा। न दो हल चलेंगे, एक ही सही।

यद्यपि मनोहर बढ़-बढ़ कर बातें कर रहा था, पर वास्तव में उसका इन्कार अब परास्त तर्क के समान था। यदि बिना दूसरों की दृष्टि में बिना अपमान उठाये बिगड़ा हुआ खेल बन जाये तो उसे कोई आपत्ति नहीं थी। हाँ, वह स्वयं क्षमा– प्रार्थना करने में अपनी हेठी समझता था। एक बार तनकर फिर झुकना उसके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। बलराज की उद्दण्डता उसे शान्त करने में हानि के भय से भी अधिक सफल हुई थी।

प्रातः काल बिलासी चौपाल जाने को तैयार हुई; पर न मनोहर साथ चलने को राजी होता था, न बलराज। अकेली जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। इतने में कादिर मियाँ ने घर में प्रवेश किया। बूढ़े आदमी थे, ठिगना डील, लंबी दाढ़ी, घुटने के ऊपर तक धोती, एक गाढ़े की मिरजई पहने हुए थे। गाँव के नाते वह मनोहर के बड़े भाई होते थे बिलासी ने उन्हें देखते ही थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया।

कादिर ने चिन्तापूर्ण भाव से कहा– अरे मनोहर, कल तुम्हें क्या सूझ गई? जल्दी जाकर कारिन्दा साहब को मना लो, नहीं तो फिर कुछ करते-धरते न बनेगी। सुना है वह तुम्हारी शिकायत करने मालिकों के पास जा रहे हैं। सुक्खू भी साथ जाने को तैयार है। नहीं मालूम, दोनों में क्या साँठ-गाँठ हुई है।

बिलासी– भाई जी, यह बूढ़े हो गये, लेकिन इनका लड़कपन अभी नहीं गया। कितना समझाती हूँ, बस अपने ही मन की करते हैं। इन्हीं की देखादेखी एक लड़का है वह भी हाथ से निकला जाता है। जिससे देखो उसी से उलझ पड़ता है। भला इनसे पूछा जाये कि सारे गाँव ने घी के रुपये लिये तो तुम्हें नाहीं करने में क्या पड़ी थी?

कादिर– इनकी भूल है और क्या? दस रुपये हमें भी लेने पड़े, क्या करते? और यह कोई नयी बात थोड़ी ही है? बड़े सरकार थे तब भी तो एक-न-एक बेगार लगी ही रहती थी।

मनोहर– भैया, तब की बातें जाने दों तब साल-दो-साल की देन बाकी पड़ जाती थी। मुदा मालिक कभी कुड़की बेदखली नहीं करते थे। जब कोई काम-काज पड़ता था, तब हमको नेवता मिलता था। लड़कियों के ब्याह के लिए उनके यहां से लकड़ी, चारा और २५ रु. बँधा हुआ था। यह सब जानते हो कि नहीं? जब वह अपने लड़कों की तरह पालते थे तो रैयत भी हँसी-खुशी उनकी बेगार करती थी। अब यह बातें तो गयीं, बस एक-न-एक पच्चड़ लगा ही रहता है। तो जब उनकी ओर से यह कड़ाई है तो हम भी कोई मिट्टी के लोंदें थोड़े ही हैं?

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