सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
बजरंगी ने ताहिर अली को गिरते देखा, तो संभल गया, दूसरा हाथ न चलाया। घीसू का हाथ पकड़ा और घर चला गया। यहां घर में कुहराम मचा। दो चमार जॉन सेवक के बंगले की तरफ गए। ताहिर अली को लोगों ने उठाया। और चारपाई पर लादकर कमरे में लाए। कंधे पर लाठी पड़ी थी, शायद हड्डी टूट गई थी। अभी तक बेहोश थे। चमारों ने तुरंत हल्दी पीसी और उसे गुड़-चूने में मिलाकर उनके कंधे में लगाया। एक आदमी लपककर पेड़े के पत्ते तोड़ लाया, दो आदमी बैठकर सेंकने लगे। जैनब और रकिया तो ताहिर अली की मरहम-पट्टी करने लगीं, बेचारी कुल्सूम दरवाजे पर खड़ी रो रही थी। पति की ओर उससे ताका भी न जाता था। गिरने से उनके सिर में चोट आ गई थी। लहू बहकर माथे पर जम गया था। बालों में लटें पड़ गई थीं, मानो किसी चित्रकार के ब्रेश में रंग सूख गया हो। हृदय में शूल उठ रहा था; पर पति के मुख की ओर ताकते ही उसे मूर्च्छा-सी आने लगती थी, दूर खड़ी थी; यह विचार भी मन में उठ रहा था कि ये सब आदमी अपने दिल में क्या कहते होंगे। इसे पति के प्रति जरा भी प्रेम नहीं, खड़ी तमाशा देख रही है। क्या करूं, उनका चेहरा न जाने कैसा हो गया है। वही चेहरा, जिसकी कभी बलाएं ली जाती थीं, मरने के बाद भयावह हो जाता है, उसकी ओर दृष्टिपात करने के लिए कलेजे को मजबूत करना पड़ता है। ताहिर अली की दिन-भर सेंक-बांध हुई, चमारों ने इस तरफ दौड़-धूप की, मानो उनका कोई अपना ईष्ट मित्र है। क्रियात्मक सहानुभूति ग्राम-निवासियों का विशेष गुण है। रात को भी कई चमार उनके पास बैठे सेंकते-बांधते रहे ! जैनब और रकिया बार-बार कुल्सूम को ताने देतीं–बहन, तुम्हारा दिल भी गजब का है। शौहर का वहां बुरा हाल हो रहा है और तुम यहां मजे से बैठी हो। हमारे मियां के सिर में जरा-सा दर्द होता था, तो हमारी जान नाखून में समा जाती थी। आजकल की औरतों का कलेजा सचमुच पत्थर का होता है। कुल्सूम का हृदय इन बाणों से बिंध जाता था; पर यह कहने का साहस न होता था कि तुम्हीं दोनों क्यों नहीं चली जातीं? आखिर तुम भी तो उन्हीं की कमाई खाती हो, और मुझसे अधिक। किंतु इतना कहती, तो बचकर कहां जाती, दोनों उसके गले पड़ जातीं। सारी रात जागती रही। बार-बार द्वार पर जाकर आहट ले आती थी। किसी भांति रात कटी, प्रातःकाल ताहिर अली की आंखें खुलीं; दर्द से अब भी कराह रहे थे; पर अब अवस्था उतनी शोचनीय न थी। तकिये के सहारे बैठ गए। कुल्सूम ने उन्हें चमारों से बाते करते सुना। उसे ऐसा जान पड़ा कि इनका स्वर कुछ विकृत हो गया है। चमारों ने ज्यों ही उन्हें होश में देखा, समझ गए कि अब हमारी जरूरत नहीं रही, अब घरवाली की सेवा-शुश्रुषा का अवसर आ गया। एक-एक करके विदा हो गए। अब कुल्सूम ने चित्त सावधान किया और पति के पास आ बैठी। ताहिर अली ने उसे देखा, तो क्षीण स्वर में बोले–खुदा ने हमें नमकहरामी की सजा दी है। जिनके लिए अपने आका का बुरा चेता, वही अपने दुश्मन हो गए।
कुल्सूम–तुम यह नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते? जब तक जमीन का मुआमला तय न हो जाएगा एक-न-एक झगड़ा-बखेड़ा रोज रहेगा, लोगों से दुश्मनी बढ़ती जाएगी। यहां जान थोड़े ही देना है। खुदा ने जैसे इतने दिन रोजी दी है, वैसे ही फिर देगा। जान तो सलामत रहेगी।
ताहिर–जान तो सलामत रहेगी, पर गुजर क्योंकर होगा, कौन इतना दिए देता है? देखती हो कि अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे आदमी मारे-मारे फिरते हैं।
कुल्सूम–न इतना मिलेगा, न सही; इसका आधा तो मिलेगा ! दोनों वक्त न खाएंगे, एक ही वक्त सहीं; जान तो आफत में न रहेगी।
ताहिर–तुम एक वक्त खाकर खुश रहोगी, घर में और लोग भी तो हैं, उनके दुःखड़े रोज कौन सुनेगा? मुझे अपनी जान से दुश्मनी थोड़े ही है; पर मजबूर हूं। खुदा को जो मंजूर होगा, वह पेश आएगा।
कुल्सूम–घर के लोगों के पीछे क्या जान दे दोंगे?
ताहिर–कैसी बातें करती हो, आखिर वे लोग कोई गैर तो नहीं हैं? अपने ही भाई हैं, अपनी माएं हैं। उनकी परवरिश मेरे सिवा और कौन करेगा?
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