सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 138 पाठक हैं |
नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
ताहिर अली घबराकर मैदान की ओर दौड़े। माहिर के कपड़े खून से तर देखे, तो जामें से बाहर हो गए। घीसू के दोनों कान पकड़कर जोर से हिलाए और तमाचे-पर-तमाचे लगाने शुरू किए। मिठुआ ने देखा, अब पिटने की बारी आई; मैदान हमारे हाथ से गया, गालियां देता हुआ भागा। इधर घीसू ने भी गालियां देनी शुरू कीं। शहर के लौंड़े गाली की कला में सिद्धहस्त होते हैं। घीसू नई-नई अछूती गालियां दे रहा था और ताहिर अली गालियों का जवाब तमाचों से दे रहे थे। मिठुआ ने जाकर इस संग्राम की सूचना बजरंगी को दी–सब लोग मिलकर घीसू को मार रहे हैं, उसके मुंह से लहू निकल रहा है। वह भैंसे चरा रहा था, बस तीनों लड़के आकर भैसों को भगाने लगे। घीसू ने मना किया, तो सबों ने मिलकर मारा और बड़े मियां भी निकलकर मार रहे हैं। बजरंगी यह खबर सुनते ही आग हो गया। उसने ताहिर अली की माताओं को ५० रुपए दिए थे और उस जमीन को अपनी समझे बैठा था। लाठी उठाई और दौड़ा। देखा, तो ताहिर अली घीसू के हाथ-पांव बंधवा रहे हैं। पागल हो गया, बोला–बस, मुंशीजी, भला चाहते हो, तो हट जाओ; नहीं तो सारी सेखी भुला दूंगा, यहाँ जेहल का डर नहीं है, साल-दो-साल वहीं काट आऊंगा, लेकिन तुम्हें किसी काम का न रखूंगा। जमीन तुम्हारे बाप की नहीं है। इसलिए तुम्हें ५० रुपए दिए हैं। क्या वे हराम के रुपए थे? बस, हट ही जाओ, नहीं तो कच्चा चबा जाऊंगा; मेरा नाम बजरंगी है !
ताहिर अली ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि घीसू ने बाप को देखते ही जोर से छलांग मारी और एक पत्थर उठाकर ताहिर अली की तरफ फेंका। वह सिर नीचा न कर लें, तो माथा फट जाए। जब तक घीसू दूसरा पत्थर उठाए, उन्होंने लपककर उसका हाथ पकड़ा और इतनी जोर से ऐंठा कि वह ‘अहा मरा ! अहा मरा !’ कहता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। अब बजरंगी आपे से बाहर हो गया। झपटकर ऐसी लाठी मारी कि ताहिर अली तिलमिराकर गिर पड़े। कई चमार, जो अब तक इसे लड़कों का झगड़ा समझकर चुपचाप बैठे थे, ताहिर अली को गिरते देखकर दौड़े और बजरंगी को पकड़ लिया। समर-क्षेत्र में सन्नाटा छा गया। हां, जैनब और रकिया द्वार पर खड़ी शब्द-बाण चलाती जाती थीं–मूड़ीकाटे ने गजब कर दिया, इस पर खुदा का कहर गिरे, दूसरा दिन देखना नसीब न हो, इसकी मैयत उठे, कोई दौड़कर साहब के पास जाकर क्यों इत्तिला नहीं करता ! अरे-अरे चमारों, बैठे मुंह क्या ताकते हो, जाकर साहब को खबर क्यों नहीं देते; कहना–अभी चलिए। साथ लाना, कहना–पुलिस लेते चलिए, यहां जान देने नहीं आए हैं।
|