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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


जैनब–बेटा, भला सोचो तो, मेरे पास रुपए कहां से आएंगे, तुम्हारे सिर की कसम खाकर कहती हूं। मगर तुम डॉक्टर को बुलाओ ही क्यों? तुम्हें सीधे साहब के यहां जाना चाहिए। यह हंगामा उन्हीं की बदौलत तो हुआ है, नहीं तो यहां हमसे किसी को क्या गरज थी। एक इक्का मंगवा लो और साहब के यहां चले जाओ। वह एक रुक्की लिख देंगे, तो सरकारी शिफाखाने में खासी तरह इलाज हो जाएगा। तुम्हीं सोचो, हमारी हैसियत डॉक्टर बुलाने की है?

ताहिर अली के दिल में यह बात बैठ गई। माता को धन्यवाद दिया। सोचा, न जाने यही बात मेरी समझ में क्यों नहीं आई। इक्का मंगवाया, लाठी के सहारे बड़ी मुश्किल से उस पर सवार हुए और साहब के बंगले पर पहुंचे।

मिस्टर सेवक, राजा महेंद्रकुमार से मिलने के बाद, कंपनी के हिस्से बेचने के लिए बाहर चले गए थे और उन्हें लौटे हुए आज तीन दिन हो गए थे। कल वह राजा साहब से फिर मिले थे; मगर जब उनका फैसला सुना, तो बहुत निराश हुए। बहुत देर तक बैठे तर्क-वितर्क करते रहे; लेकिन राजा साहब ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया। निराश होकर आए और मिसेज सेवक से सारा वृत्तांत कह सुनाया।

मिसेज सेवक को हिंदुस्तानियों से चिढ़ थी। यद्यपि इसी देश के अन्न-जल से उनकी सृष्टि हुई थी, पर अपने विचार से हजरत ईसा की शरण में आकर, वह हिंदुस्तानियों के अवगुणों से मुक्त हो चुकी थीं। उनके विचार में यहां के आदमियों को खुदा ने सज्जनता, सहृदयता, उदारता, शालीनता आदि दिव्य गुणों से संपूर्णतः वंचित रक्खा है। वह योरपीय सभ्यता की भक्त थीं और आहार-विहार में उसी का अनुसरण करती थीं; खान-पान,वेश-भूषा, रहन-सहन, सब अंगरेजी थी; मजबूरी केवल अपने सांवले रंग से थी। साबुन के निरंतर प्रयोग और अन्य रायासनिक पदार्थों का व्यवहार करने पर भी मनोकामना पूरी होती न थी। उनके जीवन की एकमात्र यही अभिलाषा थी कि हम ईसाइयों की श्रेणी से निकलकर अंगरेजों में जा मिलें, हमें लोग साहब समझे, हमारा रब्त-जब्त अंगरेजों से हो, हमारे लड़कों की शादियां ऐंग्लो इंडियन या कम-से-कम उच्च श्रेणी के यूरोपियन लोगों से हो। सोफ़ी की शिक्षा-दीक्षा अंगरेजी ढंग पर हुई थी; किंतु वह माता के बहुत आग्रह करने पर भी अंगरेजी दावतों और पार्टियों में शरीक होती न थी, और नाच से तो उसे घृणा ही थी। किंतु मिसेज सेवक इन अवसरों को हाथ से न जाने देती थीं, यों काम न चलता तो विशेष प्रयत्न करके निमंत्रण-पत्र मंगवाती थीं। अगर स्वयं उनके मकान पर दावतें और पार्टियां बहुत कम होती थीं, तो इसका कारण ईश्वर सेवक की कृपणता थी।

यह समाचार सुनकर मिसेज सेवक बोलीं–देख ली हिंदुस्तानियों की सज्जनता? फूले न समाते थे। अब तो मालूम हुआ कि ये लोग कितने कुटिल और विश्वासघातक हैं। एक अंधे भिखारी के सामने तुम्हारी यह इज्जत है। पक्षपात तो इन लोगों की घुट्टी में पड़ा हुआ है, और यह उन बड़े-बड़े आदमियों का हाल है, जो अपनी जाति के नेता समझे जाते हैं, जिनकी उदारता पर लोगों को गर्व है। मैंने मिस्टर क्लार्क से एक बार चर्चा की थी। उन्होंने तहसीलदारों को हुक्म दे दिया कि अपने-अपने इलाके में तंबाकू की पैदावार बढ़ाओ। यह सोफ़ी के आग में कूदने का पुरस्कार है ! जरा-सा म्युनिसिपैलिटी का अख्तियार क्या मिल गया, सबों के दिमाग फिर गए। मिस्टर क्लार्क कहते थे कि अगर राजा साहब जमीन का मुआमला न तय करेंगे, तो मैं जाब्ते से उसे आपको दिला दूंगा।

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