सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
प्रभु सेवक को अब क्रोध आया। पहले उन्होंने समझा था, नायकराम दिल्लगी कर रहा है। अब मालूम हुआ कि वह सचमुच लड़ने पर तैयार है। बोले–इस धोखे में नहीं हूं, कठिनाइयों को खूब जानता हूं। अब तक भरोसा था कि समझौते से सारी बातें तय हो जाएंगी, इसीलिए आया था। लेकिन तुम्हारी इच्छा कुछ और हो, तो वही सही। अब तक मैं तुम्हें निर्बल समझता था, और निर्बलों पर अपनी शक्ति का प्रयोग न करना चाहता था। पर आज जाना कि तुम हेकड़ हो, अपने बल का घमंड है। इसलिए अब हम तुम्हें भी अपने हाथ दिखाएं, तो कोई अन्याय नहीं है।
इन शब्दों में नेकनीयती झलक रही थी। ठाकुरदीन ने कहा–हुजूर, पंडाजी की बातों का खियाल न करें। इनकी आदत ही ऐसी है, जो कुछ मुंह से आया, बक डालते हैं। हम लोग आपके ताबेदार हैं।
नायकराम–आप दूसरों के बल पर कूदते होंगे, यहां अपने हाथों के बल का भरोसा करते हैं। आपलोगों के दिल में जो अरमान हों, निकाल डालिए। फिर न कहना कि धोखे में वार किया। (धीरे से) एक ही हाथ में सारी किरस्तानी निकल जाएगी।
प्रभु सेवक–क्या कहा, जरा जोर से क्यों नहीं कहते?
नायकराम–(कुछ डरकर) कह तो रहा हूं, जो अरमान हो, निकाल डालिए।
प्रभु सेवक–नहीं, तुमने कुछ और कहा है।
नायकराम–जो कुछ कहा है, वही फिर कह रहा हूं। किसी का डर नहीं है।
प्रभु सेवक–तुमने गाली दी है।
यह कहते हुए प्रभु सेवक फिटन से नीचे उतर पड़े, नेत्रों से ज्वाला-सी निकलने लगी, नथुने फड़कने लगे, सारा शरीर थरथराने लगा, एड़ियां ऐसी उछल रही थीं मानो किसी उबलती हुई हांडी का ढकना है। आकृति विकृत हो गई थी। उनके हाथ में केवल एक पतली-सी छड़ी थी। फिटन से उतरते ही वह झपटकर नायकराम के कल्ले पर पहुंच गए, उसके हाथ से लाठी छीनकर फेंक दी; और ताबड़तोड़ कई बेंत लगाए। नायकराम दोनों हाथों से वार रोकता पीछे हटता जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि वह अपने होश में नहीं है। वह यह जानता था कि भद्र पुरुष मार खाकर चाहे चुप रह जाएं, गाली नहीं सह सकते। कुछ को पश्चात्ताप, कुछ आघात की अविलंबिता और कुछ परिणाम के भय ने उसे वार करने का अवकाश ही न दिया। इन अविरल प्रहारों से वह चौंधिया-सा गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रभु सेवक उसके जोड़ के न थे; किंतु उसमें सत्साहस, वह न्याय-पक्ष का विश्वास न था, जो संख्या और शस्त्र तथा बल की परवा नहीं करता।
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