सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
ये बातें करते हुए लोग नायकराम के घर आए। किसी ने आग बनाई, कोई हल्दी पीसने लगा। थोड़ी देर में मुहल्ले के और लोग आकर जमा हो गए। सबको आश्चर्य होता था कि नायकराम–जैसा फेकैत और लठैत कैसे मुंहकी खा गया। कहां सैकड़ों के बीच से बेदाग निकल आता था, कहां एक लौंड़े ने लथेड़ डाला। भगवान की मरजी है।
जगधर हल्दी का लेप करता हुआ बोला–यह सारी आग भैरों की लगाई हुई है। उसने रास्ते ही में साहब के कान भर दिए थे। मैंने तो देखा, उसकी जेब में पिस्तौल भी था।
नायकराम–पिस्तौल और बंदूक सब देखूंगा, अब तो लाग पड़ गई।
ठाकुरदीन–कोई अनुष्ठान करवा दिया जाए।
नायकराम–इसे बीच बाजार में फिटन रोककर मारूंगा, फिर कहीं मुंह दिखाने लायक न रहेगा। अब मन में यही ठन गई है।
सहसा भैरों आकर खड़ा हो गया। नायकराम ने ताना दिया–तुम्हें तो बड़ी खुशी हुई होगी भैरों !
भैरों–क्यों भैया?
नायकराम–मुझ पर मार न पड़ी है !
भैरों–क्या मैं तुम्हारा दुसमन हूं भैया? मैंने तो अभी दुकान पर सुना। होस उड़ गए। साहब देखने में तो बहुत सीधा-सादा मालूम होता था। मुझसे हंस-हंसकर बातें कीं, यहां आकर न जाने कौन भूत उस पर सवार हो गया।
नायकराम–उसका भूत मैं उतार दूंगा, अच्छी तरह उचार दूंगा, जरा खड़ा तो होने दो। हां, जो कुछ राय हो, उसकी खबर वहां न होने पाए, नहीं तो चौकन्ना हो जाएगा।
बजरंगी–यहां हमारा ऐसा कौन बैरी बैठा हुआ है?
जगधर–यह न कहो, घर का भेदी लंका दाहे। कौन जाने, कोई आदमी साबासी लूटने के लिए, इनाम, लेने के लिए, सुर्खरू बनने के लिए, वहां सारी बातें लगा आए !
भैरों–मुझी पर शक कर रहे हो न? तो मैं इतना नीच नहीं हूं कि घर का भेद दूसरों में खोलता फिरूं। इस तरह चार आदमी एक जगह रहते हैं, तो आपस में खटपट होती ही है; लेकिन इतना कमीना नहीं हूं भभीखन की भांति अपने भाई के घर में आग लगवा दूं। क्या इतना नहीं जानता कि मरने-जीने में, बिपत-संगत में मुहल्ले के लोग ही काम आते हैं? कभी किसी के साथ विश्वासघात किया है? पंडाजी कह दें, कभी उनकी बात दुलखी है? उनकी आड़ न होती तो पुलिस ने अब तक मुझे कब का लदवा दिया होता, नहीं तो रजिस्टर में नाम तक नहीं है।
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