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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


ईश्वर सेवक गृह-प्रबंध में निपुण थे, और गृह-कार्यों में उनका उत्साह लेश-मात्र भी कम न हुआ था। उनकी आराम-कुर्सी बंगले के सायबान में पड़ी रहती थी। उस पर वह सुबह से शाम तक बैठे जॉन सेवक की फिजूलखर्ची और घर की बरबादी का रोना रोया करते थे। वह अब भी नियमित रूप से पुत्र को घंटे-दो-घंटे उपदेश दिया करते थे, और शायद इसी उपदेश का फल था कि जॉन सेवक का धन और मान दिनोंदिन बढ़ता जाता था। ‘किफायत’ उनके जीवन का मूल तत्त्व था। और इसका उल्लंघन उन्हें असह्य था। वह अपने घर में धन का अपव्यय नहीं देख सकते थे, चाहे वह किसी मेहमान ही का धन क्यों न हो। धर्मानुरागी इतने थे कि बिला नागा दोनों वक्त गिरजाघर जाते। उनकी अपनी अलग सवारी थी। एक आदमी इस तामजान को खींचकर गिरजाघर के द्वार तक पहुंचा आया करता था। वहां पहुंचकर ईश्वर सेवक उसे तुरंत घर लौटा देते थे। गिरजा के अहाते में तामजान की रक्षा के लिए किसी आदमी के बैठे रहने की जरूरत न थी। घर आकर वह आदमी और कोई काम कर सकता था। बहुधा उसे लौटाते समय वह काम भी बतलाया करते थे। दो घंटे बाद वह आदमी जाकर उन्हें खींच लाता था। लौटती बार यथासाध्य खाली हाथ न लौटते थे, कभी दो-चार पपीते मिल जाते, कभी नारंगियां, कभी सेर-आध-सेर मकोय। पादरी उनका बहुत सम्मान करता था। उनकी सारी उम्मत (अनुयायियों की मंडली) में इतना वयोवृद्ध और दूसरा आदमी न था, उस पर धर्म का इतना प्रेमी ! वह उसके धर्मोपदेशों को जितनी तन्मयता से सुनते थे और जितनी भक्ति से कीर्तन में भाग लेते थे, वह आदर्श कही जा सकती थी।

प्रातःकाल था। लोग जलपान करके या छोटी हाजिरी खाकर, मेज पर से उठे थे। मि. जॉन सेवक ने गाड़ी तैयार करने का हुक्म दिया। ईश्वर सेवक ने अपनी कुरसी पर बैठे-बैठे चाय का एक प्याला पिया था, और झुंझला रहे थे कि इसमें शकर क्यों इतनी झोंक दी गई है। शकर कोई नियामत नहीं कि पेट फाड़कर खाई जाए, एक तो मुश्किल से पचती है, दूसरे इतनी महंगी। इसकी आधी शकर चाय को मजेदार बनाने के लिए काफी थी। अंदाज से काम करना चाहिए था, शकर कोई पेट भरने की चीज नहीं है। सैकड़ों बार कह चुका हूं, पर मेरी कौन सुनता है। मुझे तो सबने कुत्ता समझ लिया है। उसके भूंकने की कौन परवा करता है?

मिसेज सेवक ने धर्मानुराग और मितव्ययिता का पाठ भलीभांति अभ्यस्त किया था। लज्जित होकर बोली–पापा, क्षमा कीजिए। आज सोफ़ी ने शकर ज्यादा डाल दी थी। कल से आपको यह शिकायत न रहेगी, मगर करूं क्या, यहां तो हल्की चाय किसी को अच्छी ही नहीं लगती।

ईश्वर सेवक ने उदासीन भाव से कहा–मुझे क्या करना है, कुछ कयामत तक तो बैठा रहूंगा नहीं, मगर घर के बरबाद होने के ये ही लक्षण हैं। ईसू, मुझे अपने दामन में छुपा।

मिसेज सेवक–मैं अपनी भूल स्वीकार करती हूं। मुझे अंदाज से शकर निकाल देनी चाहिए थी।

ईश्वर सेवक–अरे, तो आज यह कोई नई बात थोड़े ही है ! रोज तो यही रोना रहता है। जॉन समझता है, मैं घर का मालिक हूं, रुपए कमाता हूं, खर्च क्यों न करूं? मगर धन कमाना एक बात है, उसकी सद्व्यय करना दूसरी बात। होशियार आदमी उसे कहते हैं, जो धन का उचित उपयोग करे। इधर से लाकर उधर खर्च कर दिया, तो क्या फायदा? इससे तो न लाना ही अच्छा। समझाता ही रहा; पर इतनी ऊंची रास का घोड़ा ले लिया। इसकी क्या जरूरत थी? तुम्हें घुड़दौड़ नहीं करना है। एक टट्टू से काम चल सकता था। यही न कि औरों के घोड़े आगे निकल जाते, तो इसमें तुम्हारी क्या शेखी मारी जाती थी। कहीं दूर जाना नहीं पड़ता। टट्टू होता, छह सेर की जगह दो सेर दाना खाता। आखिर चार सेर दाना व्यर्थ ही जाता है न? मगर मेरी कौन सुनता है? ईसू मुझे अपने दामन में छुपा। सोफ़ी, यहां आ बेटी, कलामेपाक सुना।

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