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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


सोफ़िया प्रभु सेवक के कमरे में बैठी हुई उनसे मसीह के इस कथन पर शंका कर रही थी कि गरीबों के लिए आसमान की बादशाहत है, और अमीरों का स्वर्ग में जाना उतना ही असंभव है, जितना ऊंट का सुई की नोक में जाना। उसके मन में शंका हो रही थी, क्या दरिद्र होना स्वयं कोई गुण है, और धनी होना स्वयं कोई अवगुण? उसकी बुद्धि इस कथन की सार्थकता को ग्रहण न कर सकती थी। क्या मसीह ने केवल अपने भक्तों को खुश करने के लिए ही धन की इतनी निंदा की है? इतिहास बतला रहा है कि पहले केवल दीन, दुःखी, दरिद्र और समाज के पतित जनता ने ही मसीह के दामन में पनाह ली। इसीलिए तो उन्होंने धन की इतनी अवहेलना नहीं की? कितने ही गरीब ऐसे हैं, जो सिर से पांव तक अधर्म और अविचार में डूबे हुए हैं। शायद उनकी दुष्टता ही उनकी दरिद्रता का कारण है। क्या केवल दरिद्रता उनके सब पापों का प्रायश्चित कर देगी? कितने ही धनी हैं, जिनके हृदय आईने की भांति निर्मल हैं। क्या उनका वैभव उनके सारे सत्कर्मों को मिटा देगा?

सोफ़िया सत्यासत्य के निरूपण में सदैव रत रहती थी। धर्मतत्त्वों को बुद्धि की कसौटी पर कसना उसका स्वाभाविक गुण था, और जब तक तर्क-बुद्धि-स्वीकार न करे, वह केवल धर्म-ग्रंथों के आधार पर किसी सिद्धांत को न मान सकती थी। जब उसके मन में कोई शंका होती, तो वह प्रभु सेवक की सहायता से उसके निवारण की चेष्टा किया करती।

सोफ़िया–मैं इस विषय पर बड़ी देर से गौर कर रही हूं, पर कुछ समझ में नहीं आता। प्रभु मसीह ने दरिद्रता को इतना महत्त्व क्यों दिया और धन-वैभव को क्यों निषिद्ध बतलाया?

प्रभु सेवक–जाकर मसीह से पूछा।

सोफ़िया–तुम क्या समझते हो?

प्रभु सेवक–मैं कुछ नहीं समझता, और न ही कुछ समझना चाहता हूं। भोजन, निद्रा और विनोद, मनुष्य-जीवन के ये ही तीन तत्त्व हैं। इसके सिवा सब गोरखधंधा है। मैं धर्म को बुद्धि से बिल्कुल अलग समझता हूं। धर्म को तौलने के लिए बुद्धि उतनी ही अनुपयुक्त है, जितना बैगन तौलने के लिए सुनार का कांटा। धर्म, धर्म है, बुद्धि-बुद्धि। या तो धर्म का प्रकाश इतना तेजोमय है कि बुद्धि की आंखें चौंधिया जाती हैं, या इतना घोर अंधकार है कि बुद्धि को कुछ नजर नहीं आता। इन झगड़ों में व्यर्थ सिर खपाती हो। सुना, आज पापा चलते-चलते क्या कह गए !

सोफ़िया–नहीं, मेरा ध्यान उधर न था।

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