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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


प्रभु सेवक–दुनिया उससे कहीं तंग है, जितना तुम समझती हो।

सोफ़िया–कब्र के लिए तो जगह निकल ही आएगी।

सहसा ईश्वर सेवक ने जाकर उसे छाती से लगा लिया, और अपने भक्ति-गद्गद नेत्र-जल से उसके संतप्त हृदय को शांत करने लगे। सोफ़िया को उनकी श्रद्धालुता पर दया आ गई। कौन ऐसा निर्दय प्राणी है, जो भोले-भाले बालक के कठघोड़े का उपहास करके उसका दिल दुःखाए, उसके मधुर स्वप्न को विश्रृंखल कर दे?

सोफ़िया ने कहा–दादा, आप आकर इस कुर्सी पर बैठ जाएं, खड़े-खड़े आपको तकलीफ होती है।

ईश्वर सेवक–जब तक तू अपने मुख से न कहेगी कि मैं प्रभु मसीह पर विश्वास करती हूं, तब तक मैं तेरे द्वार पर, यों ही, भिखारियों की भांति खड़ा रहूंगा।

सोफ़िया–दादा, मैंने यह कभी नहीं कहा कि मैं प्रभु ईसू पर ईमान नहीं रखती, या मुझे उन पर पर श्रद्धा नहीं है। मैं उन्हें महान आदर्श पुरुष और क्षमा तथा दया का अवतार समझती हूं, और समझती रहूंगी।

ईश्वर सेवक ने सोफ़िया के कपोलों का चुंबन करके कहा–बस, तेरा चित्त शांत हो गया। ईसू तुझे अपने दामन में लें। मैं बैठता हूँ, मुझे ईश्वर-वाक्य सुना, कानों को प्रभु मसीह की वाणी से पवित्र कर।

सोफ़िया इनकार न कर सकी। ‘उत्पत्ति’ का एक परिच्छेद खोलकर पढ़ने लगी। ईश्वर सेवक आंखें बंद करके कुर्सी पर बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगे। मिसेज सेवक ने यह दृश्य देखा और विजयगर्व से मुस्कराती हुई चली गईं।

यह समस्या तो हल हो गई, पर ईश्वर सेवक के मरहम से उसके अंतःकरण का नासूर अच्छा न हो सकता था। आए-दिन उसके मन में धार्मिक शंकाएं उठती रहती थीं और दिन-प्रतिदिन उसे अपने घर में रहना दुस्सह होता जाता था। शनैः-शनैः प्रभु सेवक की सहानुभूति भी क्षीण होने लगी। मि. जॉन सेवक को अपने व्यावसायिक कामों से इतना अवकाश ही न मिलता था कि उसके मानसिक विप्लव का निवारण करते। मिसेज सेवक पूर्ण निरंकुशता से उस पर शासन करती थीं। सोफ़िया के लिए सबसे कठिन परीक्षा का समय वह होता था, जब वह ईश्वर सेवक को बाइबिल पढ़कर सुनाती थी। इस परीक्षा से बचने के लिए वह नित्य बहाने ढूंढ़ती रहती थी। अतः अपने कृत्रिम जीवन से उसे घृणा होती जाती थी। उसे बार-बार प्रबल अंतःप्रेरणा होती कि घर छोड़कर कहीं चली जाऊं, और स्वाधीन होकर सत्यासत्य की विवेचना करूं, पर इच्छा व्यवहार-क्षेत्र में पैर रखते हुए संकोच से विवश हो जाती थी। पहले प्रभु सेवक से अपनी शंकाए प्रकट करते वह शांत-चित्त हो जाया करती थी; पर ज्यों-ज्यों उनकी उदासीनता बढ़ने लगी, सोफ़िया के हृदय से भी उनके प्रति और आदर उठने लगा। उसे धारणा होने लगी की इनका मन केवल भोग और विलास का दास है, जिसे सिद्धांतों से कोई लगाव नहीं। यहां तक की उनकी काव्य-रचनाएं भी, जिन्हें वह पहले बड़े शौक से सुना करती थी, अब उसे कृत्रिम भावों से परिपूर्ण मालूम होतीं। वह बहुधा टाल दिया करती कि मेरे सिर में दर्द है, सुनने को जी नहीं चाहता। अपने मन में कहती, इन्हें उन सद्भावों और पवित्र आवेगों को व्यक्त करने का क्या अधिकार है, जिनका आधार आत्म-दर्शन और अनुभव पर न हो।

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