सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
अभी संगीत की ध्वनि गूंज ही रही थी कि अकस्मात् उसी अहाते के अंदर एक खपरैल के मकान में आग लग गई। जब तक लोग उधर दौड़े, अग्नि की ज्वाला प्रचंड हो गई। सारा मैदान जगमगा उठा। वृक्ष और पौधें प्रदीप्त प्रकाश के सागर में नहा उठे। गानेवालों ने तुरंत अपने-अपने साज वहीं छोड़े धोतियां ऊपर उठाईं आस्तीनें चढ़ाईं और आग बुझाने दौड़े। भवन से और भी कितने ही युवक निकल पड़े। कोई कुएं से पानी लाने दौड़ा, कोई आग के मुंह में घुसकर अंदर की चीजें निकाल-निकालकर बाहर फेंकने लगा। लेकिन कहीं वह उतावलापन, वह घबराहट, वह भगदड़ वह कुहराम, वह दौड़ों-दौड़ो’ का शोर, वह स्वयं कुछ न करके दूसरों को हुक्म देने का गुल न था, जो ऐसी दैवी आपदाओं के समय साधारणतः हुआ करता है। सभी आदमी ऐसे सुचारू और सुव्यवस्थित रूप से अपना-अपना काम कर रहे थे कि एक बूंद पानी भी व्यर्थ न गिरने पाता था, और अग्नि का वेग प्रतिक्षण घटता जाता था।
लोग इतनी निर्भयता से आग में कूदते थे, मानों वह जलकुंड है।
अभी अग्नि का वेग पूर्णतः शांत न हुआ था कि दूसरी तरफ से आवाज आई–‘दौड़ो-दौड़ो, आदमी डूब रहा है।’ भवन के दूसरी ओर एक पक्की बावली थी, जिसके किनारे झाड़ियां लगी हुई थीं, तट पर एक छोटी-सी नौका खूंटी से बंधी हुई पड़ी थी। आवाज सुनते ही आग बुझानेवाले दल से कई आदमी निकलकर बावली की तरफ लपके, और डूबने वाले को बचाने के लिए पानी में कूद पड़े। उनके कूदने की आवाज ‘धम ! धम !’ सोफ़िया के कानों में आई। ईश्वर का यह कैसा प्रकोप कि एक ही साथ दोनों प्रधान तत्त्वों में विप्लव ! और एक ही स्थान पर ! वह उठकर बावली की ओर जाना ही चाहती थी कि अचानक उसने एक आदमी को पानी का डोल लिए फिसलकर जमीन पर गिरते देखा। चारों ओर अग्नि शांत हो गई थी; पर जहां वह आदमी गिरा था, वहां अब तक अग्नि बड़े वेग से धधक रही थी। अग्नि-ज्वाला विकराल मुंह खोले उस अभागे मनुष्य की तरफ लपकी। आग की लपटें उसे निगल जातीं; पर सोफ़िया विद्युत-गति से ज्वाला की तरह दौड़ी और उस आदमी को खींचकर बाहर निकाल लाई। यह सब कुछ क्षण-मात्र में हो गया। अभागे की जान बच गई; लेकिन सोफ़िया का कोमल गात आग की लपट से झुलस गया। वह ज्वालाओं के घेरे से बाहर आते ही अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ी।
सोफ़िया ने तीन दिन तक आंखें न खोली। मन न जाने किन लोकों में भ्रमण किया करता था। कभी अद्भुत, कभी भयावह दृश्य दिखाई देते। कभी ईसा की सौम्य मूर्ति आंखों के सामने आ जाती, कभी किसी विदुषी महिला के चंद्रमुख के दर्शन होते, जिन्हें यह सेंट मेरी समझती।
चौथे दिन प्रातःकाल उसने आंखें खोलीं, तो अपने को एक सजे हुए कमरे में पाया। गुलाब और चंदन की सुगंध आ रही थी। उसके सामने कुरसी पर वही महिला बैठी हुई थी, जिन्हें उसने सुषुप्तावस्था में सेंट मेरी समझा था, और सिरहाने की ओर एक वृद्ध पुरुष बैठे थे, जिनकी आंखों से दया टपक रही थी। इन्हीं को कदाचित उसने, अर्द्ध चेतना की दशा में, ईसा समझा था। स्वप्न की रचना स्मृतियों की पुनरावृत्ति-मात्र होती है।
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