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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


रानी–कुछ नाज भी दान करा दूं?

यह कहकर रानी ने डॉक्टर गांगुली की ओर देखकर आंखें मटकाई। कुंवर साहब तुरंत बोले–फिर वही ढकोसले ! इस जमाने में जो दरिद्र है, उसे दरिद्र होना चाहिए, जो भूखों मरता है, उसे भूखों मरना चाहिए; जब घंटे-दो-घंटे की मिहनत से खाने-भर को मिल सकता है, तो कोई सबब नहीं कि क्यों कोई आदमी भूखों मरे। दान ने हमारी जाति में जितने आलसी पैदा कर दिए हैं, उतने सब देशों ने मिलकर भी न पैदा किए होंगे। दान का इतना महत्त्व क्यों रखा गया, यह मेरी समझ में नहीं आता।

रानी–ऋषियों ने भूल की कि तुमसे सलाह न ले ली।

कुंवर–हां, मैं होता, तो साफ कह देता–आप लोग यह आलस्य, कुकर्म और अनर्थ का बीच बो रहे हैं। दान आलस्य का मूल है और आलस्य सब पापों का मूल है। इसलिए दान ही सब पापों का मूल है, कम-से-कम पोषक तो अवश्य ही है। दान नहीं, अगर जी चाहता हो, तो मित्रों को एक भोज दे दो।

डॉक्टर गांगुली–सोफ़िया, तुम राजा साहब का बात सुनता है? तुम्हारा प्रभु मसीह तो दान को सबसे बढ़कर महत्त्व देता है, तुम कुंवर साहब से कुछ नहीं कहता?

सोफ़िया ने इंदु की ओर देखा, और मुस्कराकर आंखें नीची कर लीं, मानों कह रही थी कि मैं इनका आदर करती हूं, नहीं तो जवाब देने में असमर्थ नहीं हूं।

सोफ़िया मन ही मन इन प्राणियों के पारस्परिक प्रेम की तुलना अपने घरवालों से कर रही थी। आपस में कितनी मुहब्बत है। मां-बाप दोनों इंदु पर प्राण देते हैं। एक मैं अभागिनी हूं कि कोई मुंह भी नहीं देखना चाहता। चार दिन यहां पड़े हो गए, किसी ने खबर तक न ली। किसी ने खोज ही न की होगी। मामा ने तो समझा होगा, कहीं डूब मरी। मन में प्रसन्न हो रही होंगी कि अच्छा हुआ, सिर से बला टली। मैं ऐसे सहृदय प्राणियों में रहने योग्य नहीं हूं। मेरी इनसे क्या बराबरी।

यद्यपि यहां किसी के व्यवहार में दया की झलक भी न थी, लेकिन सोफ़िया को उन्हें अपना इतना आदर-सत्कार करते देखकर अपनी दीनावस्था पर ग्लानि होती थी। इंदु से भी शिष्टाचार करने लगी। इंदु उसे प्रेम से ‘तुम’ कहती थी, पर वह उसे ‘आप’ कहकर संबोधित करती थी।

कुंवर साहब कह गए थे, मैंने मि. सेवक को सूचना दे दी है, वह आते ही होंगे। सोफ़िया को अब यह भय होने लगा कि कहीं वह आ न रहे हों। आते-ही-आते मुझे अपने साथ चलने को कहेंगे। मेरे सिर फिर वही विपत्ति पड़ेगी। इंदु से अपनी विपत्ति कथा कहूं, तो शायद उसे मुझसे कुछ सहानुभूति हो। वह नौकरानी यहां व्यर्थ ही बैठी हुई है। इंदु आई भी, तो उससे कैसे बातें करूँगी। पापा के आने के पहले एक बार इंदु से एकांत में मिलने का मौका मिल जाता, तो अच्छा होता। क्या करूं, इंदु को बुला भेजूं? न जाने क्या करने लगी। प्यानो बजाऊं, तो शायद सुनकर आए।

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