सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
सोफ़िया ने उसे क्षण-भर देखा, तब बोली–इंदू, तुम यहां कहां? आज कितने दिनों के बाद तुम्हें देखा है?
इंदु चौंक पड़ी। तीन दिन से बराबर सोफ़िया को देख रही थी, खयाल आता था कि इसे कहीं देखा है; पर कहां देखा है, यह याद न आती थी। उसकी बातें सुनते ही स्मृति जाग्रत हो गई, आंखें चमक उठीं, गुलाब खिल गया। बोली–ओहो ! सोफ़ी तुम हो?
दोनों सखियां गले मिल गईं। यह वही इंदु थी, जो सोफ़िया के साथ नैनीताल में पढ़ती थी। सोफ़िया को आशा न थी कि इंदु इतने प्रेम से मिलेगी। इंदु कभी पिछली बातें याद करके रोती, कभी हंसती, कभी गले मिल जाती। अपनी मां से उसका गुणानुवाद करने लगी। मां उसका प्रेम देखकर फूली न समाती। अंत में सोफ़िया ने झेंपे हुए कहा–इंदु, ईश्वर के लिए अब मेरी और ज्यादा तारीफ न करो, नहीं तो मैं तुमसे न बोलूंगी। इतने दिनों तक कभी एक खत भी न लिखा, मुंह-देखे का प्रेम करती हो।
रानी–नहीं बेटी सोफ़ी, इंदु मुझसे कई बार तुम्हारी चर्चा कर चुकी है। यहां किसी से हंसकर बोलती तक नहीं। तुम्हारे सिवा मैंने इसे किसी की तारीफ करते नहीं सुना।
इंदु-बहन, तुम्हारी शिकायत वाजिब है, पर करूं क्या, मुझे खत नहीं लिखना आता। एक तो बड़ी भूल यह हुई कि तुम्हारा पता नहीं पूछा, और अगर पता मालूम भी होता, तो भी मैं खत न लिख सकती। मुझे डर लगता है कि कहीं तुम हंसने न लगो। मेरा पत्र कभी समाप्त ही न होता, और न जाने क्या-क्या लिख जाती।
कुंवर साहब को मालूम हुआ कि सोफ़िया बातें कर रही है, तो वह भी उसे धन्यवाद देने के लिए आए। पूरे छह फीट के मनुष्य थे, बड़ी-बड़ी आंखें, लंबे बाल, लंबी दाढ़ी, मोटे कपड़े का एक नीचा कुरता पहने हुए थे। सोफ़िया ने ऐसा तेजस्वी स्वरूप कभी न देखा था। उसने अपने मन में ऋषियों की जो कल्पना कर रखी थी, वह बिल्कुल ऐसी ही थी। इस विशाल शरीर में बैठी हुई विशाल आत्मा को वह दोनों नेत्रों से ताक रही थी। सोफ़ी ने सम्मान-भाव से उठना चाहा; पर कुंवर साहब मधुर, सरल स्वर में बोले–बेटी, लेटी रहो, तुम्हें उठने में कष्ट होगा। लो, मैं बैठ जाता हूं, तुम्हारे पापा से मेरा परिचय है, पर क्या मालूम था कि तुम मि. सेवक की बेटी हो। मैंने उन्हें बुलाया है, लेकिन मैं कहे देता हूं, मैं अभी तुम्हें न जाने दूंगा। यह कमरा अब तुम्हारा है, और यहां से चले जाने पर भी तुम्हें एक बार नित्य यहां आना पड़ेगा। (रानी से) जाह्नवी, यहां प्यानो मंगवाकर रख दो। आज मिस सोहराबजी को बुलवाकर सोफ़िया का एक तैल चित्र खिंचवाओ। सोहराबजी ज्यादा कुशल है; पर मैं नहीं चाहता कि सोफ़िया को उनके सामने बैठना पड़े। वह चित्र हमें याद दिलाता रहेगा कि किसने महान संकट के अवसर पर हमारी रक्षा की।
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