सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
उसकी समझ में विवाह के सिवा लड़कियों के इतना दुःखी होने का कोई कारण न था।
सोफ़िया–मैंने तो इरादा कर लिया है कि विवाह न करूंगी।
इंदु–क्यों?
सोफ़िया–इसलिए कि विवाह से मुझे अपनी धार्मिक स्वाधीनता त्याग देनी पड़ेगी। धर्म विचार-स्वतंत्रता का गला घोट देता है। मैं अपनी आत्मा को किसी मत के हाथ नहीं बेचना चाहती। मुझे ऐसा ईसाई पुरुष मिलने की आशा नहीं, जिसका हृदय इतना उदार हो कि वह मेरी धार्मिक शंकाओं का दरगुजर कर सके। मैं परिस्थिति से विवश होकर ईसा को खुदा का बेटा और अपना मुक्तिदाता नहीं मान सकती, विवश होकर गिरजाघर में ईश्वर की प्रार्थना करने नहीं जाना चाहती। मैं ईसा को ईश्वर नहीं मान सकती।
इंदु–मैं तो समझती थी, तुम्हारे यहां हमलोगों के यहां से कहीं ज्यादा आजादी है, जहां चाहो अकेली जा सकती हो। हमारा तो घर से निकलना मुश्किल है।
सोफ़िया–लेकिन इतनी धार्मिक संकीर्णता तो नहीं है?
इंदु–नहीं, कोई किसी को पूजा-पाठ के लिए मजबूर नहीं करता। बाबूजी नित्य गंगास्नान करते हैं, घंटों शिव की आराधना करते हैं। अम्मांजी कभी भूलकर भी स्नान करने नहीं जातीं, न किसी देवता की पूजा करती हैं, पर बाबूजी कभी आग्रह नहीं करते। भक्ति तो अपने विश्वास और मनोवृत्ति पर ही निर्भर है। हम भाई-बहन के विचारों में आकाश-पताल का अंतर है। मैं कृष्ण की उपासिका हूं, विनय ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करता, पर बाबूजी हमलोगों से कभी कुछ नहीं कहते, और न हम भाई-बहन में कभी इस विषय पर वाद-विवाद होता है।
सोफ़िया–हमारी स्वाधीनता लौकिक और इसलिए मिथ्या है। आपकी स्वाधीनता मानसिक और इसलिए सत्य है। असली स्वाधीनता वही है, जो विचार के प्रवाह में बाधक न हो।
इंदु–तुम गिरजे में कभी नहीं जातीं?
सोफ़िया–पहले दुराग्रह-वश जाती थी, अबकी नहीं गई। इस पर घर के लोग बहुत नाराज हुए। बुरी तरह तिरस्कार किया गया।
इंदु ने प्रेममयी सरलता से कहा–वे लोग नाराज हुए होंगे, तो तुम बहुत रोई होगी। इन प्यारी आंखों से आंसू बहें होंगे। मुझसे किसी का रोना नहीं देखा जाता।
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