सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 138 पाठक हैं |
नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
सोफ़िया–पहले रोया करती थी, अब परवा नहीं करती।
इंदु–मुझे तो कभी कोई कुछ कह देता है, तो हृदय पर तीर-सा लगता है। दिन-दिन भर रोती ही रह जाती हूं। आंसू ही नहीं थमते। वह बात बार-बार हृदय में चुभा करती है। सच पूछो तो मुझे किसी के क्रोध पर रोना नहीं आता, रोना आता है अपने ऊपर कि मैंने उन्हें क्यों नाराज किया, क्यों मुझसे ऐसी भूल हुई।
सोफ़िया को भ्रम हुआ कि इंदु मुझे अपनी क्षमाशीलता से लज्जित करना चाहती है, माथे पर शिकन पड़ गई। बोली–मेरी जगह पर आप होती, तो ऐसा न कहतीं।
आखिर क्या आप अपने धार्मिक विचारों को छोड़ बैठती?
इंदु–यह तो नहीं कह सकती कि क्या करती; पर घरवालों को प्रसन्न रखने की चेष्टा किया करती।
सोफ़िया–आपकी माताजी अगर आपको जबरदस्ती कृष्ण की उपासना करने से रोकें, तो आप मान जाएंगी?
इंदु–हां, मैं तो मान जाऊंगी। अम्मां को नाराज न करूंगी। कृष्ण तो अंतर्यामी हैं, उन्हें प्रसन्न रखने के लिए उपासना की जरूरत नहीं। उपासना तो केवल अपने मन के संतोष के लिए है।
सोफ़िया–(आश्चर्य से) आपको जरा भी मानसिक पीड़ा न होगी?
इंदु-अवश्य होगी; पर उनकी खातिर मैं सह लूंगी।
सोफ़िया–अच्छा, अगर वह आपकी इच्छा के विरुद्ध आपका विवाह करना चाहें तो?
इंदु–(लजाते हुए) वह समस्या तो हल हो चुकी। मां-बाप ने जिससे उचित समझा, कर दिया। मैंने जबान तक नहीं खोली।
सोफ़िया–अरे, यह कब?
इंदु–इसे तो दो साल हो गए। (आंखें नीची करके) अगर मेरा अपना वश होता, तो उन्हें कभी न वरती, चाहे कुंवारी ही रहती। मेरे स्वामी मुझसे प्रेम करते हैं, धन की कोई कमी नहीं। पर मैं उनके हृदय के केवल चतुर्थांश की अधिकारिणी हूं, उसके तीन भाग सार्वजनिक कामों में भेंट होते हैं। एक के बदले चौथाई पाकर कौन संतुष्ट हो सकता है? मुझे तो बाजरे की पूरी बिस्कुट के चौथाई हिस्से से कहीं अच्छी मालूम होती है। क्षुधा तो तृप्त हो जाती है, जो भोजन का यथार्थ उद्देश्य है।
|