सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 138 पाठक हैं |
नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
सोफिया–आपकी धार्मिक स्वाधीनता में तो बाधा नहीं डालते?
इंदु–नहीं। उन्हें इतना अवकाश कहां?
इंदु–अगर किसी कैदी को बधाई देना उचित हो, तो शौक से दो।
सोफ़िया–बेड़ी प्रेम की हो तो?
इंदु–ऐसा होता, तो मैं तुमसे बधाई देने को आग्रह करती। मैं बंध गई, वह मुक्त हैं। मुझे यहां आए तीन महीने होने आते हैं; पर तीन बार से ज्यादा नहीं आए; और वह भी एक-एक घंटे के लिए। इसी शहर में रहते हैं, दस मिनट में मोटर आ सकती है; पर इतनी फुर्सत किसे है। हां, पत्रों से अपनी मुलाकात का काम निकालना चाहते हैं, और वे पत्र भी क्या होते हैं, आदि से अंत तक अपने दुःखड़ों से भरे हुए। आज यह काम है, कल वह काम है, इनसे मिलने जाना है, उनका स्वागत करना है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान क्या हो गए, राज्य मिल गया। जब देखो, वही धुन सवार ! और सब कामों के लिए फुर्सत है। अगर फुर्सत नहीं है, तो सिर्फ यहां आने की। मैं तुम्हें चिताए देती हूं किसी देश-सेवक से विवाह न करना, नहीं तो पछताओगी। तुम उसके अवकाश के समय की मनोरंजन-सामग्री-मात्र रहोगी।
सोफ़िया–मैं तो पहले ही अपना मन स्थिर कर चुकी; सबसे अलग-ही-अलग रहना चाहती हूं, जहां मेरी स्वाधीनता में बाधा डालनेवाला कोई न हो। मैं सत्पथ पर रहूंगी, या कुपथ पर चलूंगी, यह जिम्मेवारी भी अपने ही सिर लेना चाहती हूं। मैं बालिग हूं और अपना नफा-नुकसान देख सकती हूं। आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहती, क्योंकि रक्षा का कार्य पराधीनता के सिवा और कुछ नहीं।
इंदु–क्या तुम अपने मामा और पापा के अधीन नहीं रहना चाहतीं?
सोफ़िया–न, पराधीनता में प्रकार का नहीं, केवल मात्राओं का अंतर है।
इंदु–तो मेरे ही घर क्यों नहीं रहतीं? मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी ! और अम्मांजी तो तुम्हें आंखों की पुतली बनाकर रखेंगी। मैं चली जाती हूं, तो वह अकेले घबराया करती हैं। तुम्हें पा जाएं तो फिर गला न छोड़ें। कहो तो अम्मा से कहूं? यहां तुम्हारी स्वाधीनता में कोई दखल न देगा। बोलो, कहूं जाकर अम्मा से?
सोफ़िया–नहीं, अभी भूलकर भी नहीं। आपकी अम्मांजी को जब मालूम होगा कि इसके मां-बाप इसकी बात नहीं पूछते, मैं उनकी आंखों से भी गिर जाऊंगी। जिसकी अपने घर में इज्जत नहीं, उसकी बाहर भी इज्जत नहीं होती।
|