सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 138 पाठक हैं |
नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
जॉन सेवक–अच्छा ही हुआ। यहां होती, तो रोजाना डॉक्टर की फीस न देनी पड़ती?
ईश्वर सेवक–डॉक्टर का क्या काम था। ईश्वर की दया से मैं खुद थोड़ी-बहुत डॉक्टरी कर लेता हूं। घरवालों का स्नेह डॉक्टर की दवाओं से कहीं ज्यादा लाभदायक होता है। मैं अपनी बच्ची को गोद में लेकर कलामे-पाक सुनाता, उसके लिए खुदा से दुआ मांगता।
मिसेज सेवक–तो आप ही चले जाइए !
ईश्वर सेवक–सिर और आंखों से, मेरा तांगा मंगवा दो। हम सबों को चलना चाहिए। भूले-भटके तो प्रेम ही सन्मार्ग पर लाता है। मैं भी चलता हूं। अमीरों के सामने दीन बनना पड़ता है। उनसे बराबरी का दावा नहीं किया जाता।
जॉन सेवक–मुझे अभी साथ न ले जाइए, मैं किसी दूसरे अवसर पर जाऊंगा इस वक्त वहां शिष्टाचार के सिवा और कोई काम न होगा। मैं उन्हें धन्यवाद दूंगा, वह मुझे धन्यवाद देंगे। मैं इस परिचय को दैवी प्रेरणा समझता हूं। इत्मीनान से मिलूंगा। कुंवर साहब का शहर में बड़ा दबाव है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान उनके दामाद हैं। उनकी सहायता से मुझे पांडेपुरवाली जमीन बड़ी आसानी से मिल जाएगी। संभव है, वह कुछ हिस्से भी खरीद लें। मगर आज इन बातों का मौका नहीं है।
ईश्वर सेवक–मुझे तुम्हारी बुद्धि पर हंसी आती है। जिस आदमी से राह-रस्म पैदा करके तुम्हारे इतने काम निकल सकते हैं, उससे मिलने में भी तुम्हें इतना संकोच? तुम्हारा समय इतना बहुमूल्य है कि आध घंटे के लिए भी वहां नहीं जा सकते? पहली ही मुलाकात में सारी बातें तय कर लेना चाहते हो? ऐसा सुनहरा अवसर पाकर भी तुम्हें उससे फायदा उठाना नहीं आता?
जॉन सेवक–खैर, आपका अनुरोध है, तो मैं ही चला जाऊंगा। मैं एक जरूरी काम कर रहा था, फिर कर लूंगा। आपको कष्ट करने की जरूरत नहीं। (स्त्री से) तुम तो चल रही हो?
मिसेज सेवक–मुझे नाहक ले चलते हो; मगर खैर, चलो।
भोजन के बाद चलना निश्चित हुआ। अंगरेजी प्रथा के अनुसार यहां दिन का भोजन एक बजे होता था। बीच का समय तैयारियों में कटा। मिसेज सेवक ने अपने आभूषण निकाले, जिनमें वृद्धावस्था ने भी उन्हें विरक्त नहीं किया था। अपना अच्छे-से-अच्छा गाउन और ब्लाउज निकाला। इतना श्रृंगार वह अपनी बरस-गांठ के सिवा और किसी उत्सव में न करती थीं। उद्देश्य था सोफ़िया को जलाना, उसे दिखाना कि तेरे आने से मैं रो-रोकर मरी नहीं जा रही हूं। कोचवान को गाड़ी धोकर साफ करने का हुक्म दिया गया। प्रभु सेवक को भी साथ ले चलने की राय हुई। लेकिन जॉन सेवक ने जाकर उसके कमरे में देखा, तो उसका पता न था। उसकी मेज पर एक दर्शन-ग्रंथ खुला पड़ा था। मालूम होता था, पढ़ते-पढ़ते उठकर कहीं चला गया है। वास्तव में यह ग्रंथ तीन दिनों से इसी भांति पड़ा हुआ था।
|