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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


कुंवर साहब–आखिर कहां तक?

जॉन सेवक–२० रुपए सैकड़े समझिए।

कुंवर साहब–और पहले वर्ष?

जॉन सेवक–कम-से-कम १५ रुपए प्रति सैकड़े।

कुंवर साहब–मैं पहले वर्ष १० रुपए और उसके बाद १५ रुपए प्रति सैकड़े पर संतुष्ट हो जाऊंगा।

जॉन सेवक–तो फिर मैं आपसे यही कहूंगा कि हिस्से लेने में विलंब न करें।

खुदा ने चाहा, तो आपको कभी निराशा न होगी।

सौ-सौ रुपए के हिस्से थे। कुंवर साहब ने ५०० हिस्से लेने का वादा किया और बोले–कल पहली किस्त के दस हजार रुपए बैंक द्वारा आपके पास भेज दूंगा।

जॉन सेवक की ऊंची-से-ऊंची उड़ान भी यहां तक न पहुंची थी; पर वह इस सफलता पर प्रसन्न न हुए। उनकी आत्मा अब भी उनका तिरस्कार कर रही थी कि तुमने एक सरल-हृदय सज्जन पुरुष को धोखा दिया। तुमने देश की व्यावसायिक उन्नति के लिए नहीं, अपने स्वार्थ के लिए यह प्रयत्न किया है। देश के सेवक बनकर तुम अपनी पांचों उंगलियां घी में रखना चाहते हो। तुम्हारा मनोवांछित उद्देश्य यही है कि नफे का बड़ा भाग किसी-न-किसी हीले से आप हज्म करो। तुमने इस लोकोक्ति को प्रमाणित कर दिया कि ‘बनिया मारे जान, चोर मारे अनजान।’

अगर कुंवर साहब के सहयोग से जनता में कंपनी की साख जम जाने का विश्वास न होता, तो मिस्टर जॉन सेवक साफ कह देते कि कंपनी इतने हिस्से आपको नहीं दे सकती। एक परोपकारी संस्था के धन को किसी संदिग्ध व्यवसाय में लगाकर उसके अस्तित्व को खतरे में डालना स्वार्थपरता के लिए भी कड़वा ग्रास था; मगर धन का देवता आत्मा का बलिदान पाए बिना प्रसन्न नहीं होता। हां, इतना अवश्य हुआ कि अब तक वह निजी स्वार्थ के लिए यह स्वांग भर रहे थे, उनकी नीयत साफ नहीं थी, लाभ को भिन्न-भिन्न नामों से अपने ही हाथ में रखना चाहते थे। अब उन्होंने निःस्पृह होकर नेकनीयती का व्यवहार करने का निश्चय किया। बोले–मैं कंपनी के संस्थापक की हैसियत से इस सहायता के लिए हृदय से आपका अनुगृहीत हूं। खुदा ने चाहा, तो आपको आज के फैसले पर कभी पछताना न पड़ेगा। अब मैं आपसे एक और प्रार्थना करता हूं। आपकी कृपा ने मुझे धृष्ट बना दिया है। मैंने कारखाने के लिए जो जमीन पसंद की है, वह पांड़ेपुर के आगे पक्की सड़क पर स्थित है। रेल का स्टेशन वहां से निकट है और आस-पास बहुत-से गांव हैं। रकबा दस बीधे का है। जमीन परती पड़ी हुई है। हां, बस्ती के जानवर उसमें चरने आया करते हैं। उसका मालिक एक अंधा फकीर है। अगर आप उधर कभी हवा खाने गए होंगे, तो आपने उस अंधे को अवश्य देखा होगा।

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