सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
प्रभु सेवक–मामा, आप उनके साथ घोर अन्याय कर रही हैं।
मिसेज सेवक–तुम्हारे लिए देवी होंगी, मेरे लिए तो नहीं हैं।
जॉन सेवक–यह तो मैं पहले ही समझ गया था कि तुम्हारी उनसे न पटेगी। काम की बातें न तुम्हें आती हैं, न उन्हें। तुम्हारा काम तो दूसरों में ऐब निकालना है। सोफ़ी को क्यों नहीं लाईं?
मिसेज सेवक–वह आए भी तो, या जबरन घसीट लाती?
जॉन सेवक–आई नहीं या रानी ने आने नहीं दिया?
प्रभु सेवक–वह तो आने को तैयार थी, किंतु इसी शर्त पर कि मुझ पर कोई धार्मिक अत्याचार न किया जाए।
जॉन सेवक–इन्हें यह शर्त क्यों मंजूर होने लगी !
मिसेज सेवक–हां, इस शर्त पर मैं उसे नहीं ला सकती। वह मेरे घर रहेगी, तो मेरी बात न माननी पड़ेगी।
जॉन सेवक–तुम दोनों में एक का भी बुद्धि से सरोकार नहीं। तुम सिड़ी हो, वह जिद्दी है। उसे मना-मनूकर जल्दी लाना चाहिए।
प्रभु सेवक–अगर मामा अपनी बात पर अड़ी रहेंगी, तो शायद वह फिर घर न जाए।
जॉन सेवक–आखिर जाएगी कहां?
प्रभु सेवक–उसे कहीं जाने की जरूरत नहीं। रानी उस पर जान देती हैं।
जॉन सेवक–यह बेल मुंढ़ेर चढ़ने की नहीं है। दो में से एक को दबाना पड़ेगा।
लोग घर पहुंचे, तो गाड़ी की आहट पाते ही ईश्वर सेवक ने बड़ी स्नेहमयी उत्सुकता से पूछा–सोफ़ी आ गई न? आ, तुझे गले लगा लूं। ईसू तुझे अपने दामन में ले।
जॉन सेवक–पापा, वह अभी यहां आने के योग्य नहीं है। बहुत आशक्त हो गई है। दो-चार दिन बाद आवेगी।
ईश्वर सेवक–गजब खुदा का ! उसकी यह दशा है, और तुम सब उसे उसके हाल पर छोड़ आए ! क्या तुमलोगों में ज़रा भी मानापमान का विचार नहीं रहा ! बिल्कुल खून सफेद हो गया?
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