सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
बजरंगी ने शांत भाव से कहा–इसी ने कुछ छेड़ा होगा। वह बेचारा तो इससे आप अपनी जान छिपाता फिरता है।
जमुनी–इसी ने छेड़ा था, तो भी क्या इतनी बेदर्दी से ढकेलना चाहिए था कि सिर फूट जाए ! अंधों को सभी लड़के छेड़ते हैं; पर वे सबसे लठियांव नहीं करते फिरते।
इतने में सूरदास भी आकर खड़ा हो गया। मुख पर ग्लानि छाई हुई थी। जमुनी लपककर उसके सामने आई और बिजली की तरह कड़ककर बोली–क्यों सूरे, सांझ होते ही रोज लुटिया लेकर दूध के लिए सिर पर सवार हो जाते हो और अभी घिसुआ ने जरा लाठी पकड़ ली, तो उसे इतनी जोर से धक्का दिया कि सिर फूट गया। जिस पत्तल में खाते हो, उसी में छेद करते हो, क्यों, रुपए का घमंड हो गया है क्या?
सूरदास–भगवान जानते हैं, जो मैंने घीसू को पहचाना हो। समझा, कोई लौंड़ा होगा, लाठी को मजबूत पकड़े रहा। घीसू का हाथ फिसल गया, गिर पड़ा। मुझे मालूम होता कि घीसू है, तो लाठी उसे दे देता। इतने दिन हो गए, लेकिन कोई कह दे कि मैंने किसी लड़के को झूठमूठ मारा है। तुम्हारा ही दिया खाता हूं, तुम्हारे ही लड़के को मारूंगा?
जमुनी–नहीं, अब तुम्हें घमंड हुआ है। भीख मांगते हो, फिर भी लाज नहीं आती, सबकी बराबरी करने को मरते हो। आज मैं लहू का घूंट पीकर रह गई; नहीं तो जिन हाथों से तुमने उसे ढकेला है, उसमें लूका लगा देती।
बजरंगी जमुनी को मना कर रहा था, और लोग भी समझा रहे थे, लेकिन वह किसी की न सुनती थी। सूरदास अपराधियों की भांति सिर झुकाए यह वाग्बाण सह रहा था। मुंह से एक शब्द भी न निकालता था।
भैरों ताड़ी उतारने जा रहा था, रुक गया, और सूरदास पर दो-चार छींटे उड़ा दिए–जमाना ही ऐसा है, सब रोजगारों से अच्छा भीख मांगना। अभी चार दिन पहले घर में भूंजी भांग न थी, अब चार पैसे के आदमी हो गए हैं। पैसे होते हैं, तभी घमंड होता है; नहीं तो क्या घमंड करेंगे हम और तुम, जिनकी एक रुपया कमाई है, तो दो खर्च है !
जगधर औरों से तो भीगी बिल्ली बना रहता था, सूरदास को धिक्कारने के लिए वह भी निकल पड़ा। सूरदास पछता रहा था कि मैंने लाठी क्यों न छोड़ दी, कौन कहे कि दूसरी लकड़ी न मिलती। जगधर और भैरों के कटु वाक्य को सुन-सुनकर वह और भी दुःखी हो रहा था। अपनी दीनता पर रोना आता था। सहसा मिठुआ भी आ पहुंचा। वह भी शरारत का पुतला था, घीसू से भी दो अंगुल बढ़ा हुआ। जगधर को देखते ही यह सरस पद गा-गाकर चिढ़ाने लगा–
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