सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
नायकराम–दीनबंधु, सूरदास बहुत पक्की बात कहता है। कलकत्ता, बंबई, अहमदाबाद, कानपुर, आपके अकबाल से सभी जगह घूम आया हूं, जजमान लोग बुलाते रहते हैं। जहां-जहां कल-कारखाने हैं, वहां यही हाल देखा है।
राजा साहब–क्या बुराइयां तीर्थस्थान में नहीं हैं?
सूरदास–सरकार, उनका सुधार भी तो बड़े आदमियों ही के हाथ में है, जहां बुरी बातें पहले ही से हैं, वहां से हटाने के बदले उन्हें और फैलाना तो ठीक नहीं है।
राजा साहब–ठीक कहते हो सूरदास, बहुत ठीक कहते हो। तुम जीते, मैं हार गया। जिस वक्त मैंने साहब से इस जमीन को तय करा देने का वादा किया था, ये बातें मेरे ध्यान में न आई थीं। अब तुम निश्चिंत हो जाओ, मैं साहब से कह दूंगा, सूरदास अपनी जमीन नहीं देता। नायकराम, देखो, सूरदास को किसी बात की तकलीफ न होने पाए, अब मैं चलता हूं। यह लो सूरदास, यह तुम्हारी इतनी दूर आने की मजूरी है।
यह कहकर उन्होंने एक रुपया सूरदास के हाथ में रखा और चल दिए।
नायकराम ने कहा–सूरदास, आज राजा साहब भी तुम्हारी खोपड़ी को मान गए।
८
सोफ़िया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता, पर कभी उससे घर का कुशल-समाचार न पूछती। वह कभी हवा खाने भी न जाती कि कहीं मामा से साक्षात न हो जाए। यद्यपि इंदु ने उसकी परिस्थिति को सबसे गुप्त रखा था; पर अनुमान से सभी प्राणी उसकी यथार्थ दशा से परिचित हो गए थे। इसलिए प्रत्येक प्राणी को यह ख्याल रहता था कि कोई ऐसी बात न होने पावे, जो उसे अप्रिय प्रतीत हो ! इंदु को तो उससे इतना प्रेम हो गया था कि अधिकतर उसी के पास बैठी रहती। उसकी संगति में इंदु को भी धर्म और दर्शन के ग्रंथों से रुचि होने लगी।
घर टपकता हो, तो उसकी मरम्मत की जाती है, गिर जाए, तो उसे छोड़ दिया जाता है। सोफ़ी को जब ज्ञात हुआ कि इन लोगों को मेरी सब बातें मालूम हो गईं तो उसने परदा रखने की चेष्टा करनी छोड़ दी; धर्म-ग्रंथों के अध्ययन में डूब गई। पुरानी कुदूरतें दिल से मिटने लगीं। माता के कठोर वाक्य-बाणों का घाव भरने लगा। वह संकीर्णता, जो व्यक्तिगत भावों और चिंताओं को अनुचित महत्त्व दे देती है, इस सेवा और सद्व्यवहार के क्षेत्र में आकर तुच्छ जान पड़ने लगी। मन ने कहा, यह मामा के दोष नहीं, उनकी धार्मिक अनुदारता का दोष हैं, उनका विचारक्षेत्र परिमित है, उनमें विचार-स्वातंत्र्य का सम्मान करने की क्षमता ही नहीं, मैं व्यर्थ उनसे रुष्ट हो रहीं हूं। यही एक कांटा था, जो उसके अंतस्तल में सदैव खटकता रहता था। जब वह निकल गया, तो चित्त शांत हो गया। उसका जीवन धर्म-ग्रंथों के अवलोकन और धर्म-सिद्धांतों के मनन तथा चिंतन में व्यतीत होने लगा। अनुराग अंतर्वेदना की सबसे उत्तम औषधि है।
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