सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 138 पाठक हैं |
नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
किंतु इस मनन और अवलोकन से उसका चित्त शांत होता हो, यह बात न थी। नाना प्रकार की शंकाए नित्य उपस्थित होती रहती थीं–जीवन का उद्देश्य क्या है? प्रत्येक धर्म में इसके विविध उत्तर मिलते थे; पर एक भी ऐसा नहीं मिला, जो मन में बैठ जाए। ये विभूतियां क्या हैं, क्या केवल भक्तों की कपोल-कल्पनाएं हैं? सबसे जटिल समस्या यह थी कि उपासना का उद्देश्य क्या है? ईश्वर क्यों मनुष्यों से अपनी उपासना करने का अनुरोध करता है, इससे उसका क्या अभिप्राय है? क्या वह अपनी ही सृष्टि से अपनी स्तुति सुनकर प्रसन्न होता है? वह इन प्रश्नों की मीमांसा में इतनी तल्लीन रहती कि कई-कई दिन कमरे के बाहर न निकलती, खाने-पीने की सुधि न रहती, यहां तक कि कभी-कभी इंदु का आना उसे बुरा मालूम होता।
एक दिन प्रातःकाल वह कोई धर्मग्रंथ पढ़ रही थी कि इंदु आकर बैठ गई। उसका मुख उदास था। सोफ़िया उसकी ओर आकृष्ट न हुई, पूर्ववत पुस्तक देखने में मग्न रही। इंदू बोली–सोफ़ी अब यहां दो-चार दिन की और मेहमान हूं, मुझे भूल तो न जाओगी?
सोफ़ी ने बिना सिर उठाए ही कहा–हां।
इंदु–तुम्हारा मन तो अपनी किताबों में बहल जाएगा, मेरी याद भी न आएगी; पर मुझसे तुम्हारे बिना एक दिन न रहा जाएगा।
सोफ़ी ने किताब की तरफ देखते हुए कहा–हां।
इंदु-फिर न जाने कब भेंट हो। सारे दिन अकेले पड़े-पड़े बिसूरा करूंगी।
सोफ़ी ने किताब का पन्ना उलटकर कहा–हां।
इंदु से सोफ़िया की निष्ठुरता अब न सही गई। किसी और समय वह रुष्ट होकर चली जाती, अथवा उसे स्वाध्याय में मग्न देखकर कमरे में पांव ही न रखती; किंतु इस समय उसका कोमल हृदय वियोग-व्यथा से भरा हुआ था, उसमें मान का स्थान नहीं था, रोकर बोली–बहन, ईश्वर के लिए जरा पुस्तक बंद कर दो; चली जाऊंगी, तो फिर खूब पढ़ना। वहां से तुम्हें छेड़ने न आऊंगी।
सोफ़ी ने इंदु की ओर देखा, मानो समाधि टूटी ! उसकी आंखों में आंसू थे, मुख उतरा हुआ, सिर के बाल बिखरे हुए। बोली–अरे ! इंदु बात क्या है? रोती क्यों हो?
इंदु–तुम अपनी किताब देखो, तुम्हें किसी के रोने-धोने की क्या परवा है ! ईश्वर ने न जाने क्यों मुझे तुझ-सा हृदय नहीं दिया।
|