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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


सोफ़िया–बहन, क्षमा करना, मैं एक बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। अभी तक वह गुत्थी नहीं सुलझी। मूर्तिपूजा को सर्वथा मिथ्या समझती थी। मेरा विचार था कि ऋषियों ने केवल मूर्खों की आध्यात्मिक शांति के लिए यह व्यवस्था कर दी है; आज से मैं मूर्ति-पूजा की कायल हो गई। लेखक ने इसे वैज्ञानिक सिद्धांतों से सिद्ध किया है, यहां तक कि मूर्तियों का आकार-प्रकार भी वैज्ञानिक नियमों ही के आधार पर अवलंबित बतलाया है।

इंदु–मेरे लिए बुलावा आ गया। तीसरे दिन चली जाऊंगी।

सोफ़िया–यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई, फिर मैं यहां कैसे रहूंगी?

इस वाक्य में सहानुभूति नहीं केवल स्वहित था। किंतु इंदु ने इसका आशय समझा कि सोफ़ी को मेरा वियोग असह्य होगा। बोली–तुम्हारा जी तो किताबों में बहल जाएगा। हां, मैं तुम्हारी याद में तड़पा करूंगी। सच कहती हूं, तुम्हारी सूरत एक क्षण के लिए भी चित्त से न उतरेगी, यह मोहिनी मूर्ति आंखों के सामने फिरा करेगी। बहन, अगर तुम्हें बुरा न लगे, तो एक याचना करूं। क्या यह संभव नहीं हो सकता कि तुम भी कुछ दिन मेरे साथ रहो? तुम्हारे सत्संग में मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा। मैं इसके लिए तुम्हारी सदैव अनुगृहीत रहूंगी।

सोफ़िया–तुम्हारे प्रेम के बंधन में बंधी हुई हूं, जहां चाहो, ले चलो। चाहूं तो जाऊंगी, न चाहूं तो भी जाऊंगी। मगर यह तो बताओ, तुमने राजा साहब से भी पूछ लिया है?

इंदु–यह ऐसी कौन-सी बात है, जिसके लिए उनकी अनुमति लेनी पड़े। मुझसे बराबर कहते रहते हैं कि तुम्हारे लिए एक लेडी की जरूरत है, अकेले तुम्हारा जी घबराता होगा। यह प्रस्ताव सुनकर फूले न समाएंगे।

रानी जाह्नवी तो इंदु की विदाई की तैयारियां कर रही थीं, और इंदु सोफ़िया के लिए लैस और कपड़े आदि ला-लाकर रखती थी। भांति-भांति के कपड़ों से कई संदूक भर दिए। वह ऐसे ठाठ से ले जाना चाहती थी कि घर की लौडियां-बांदियां उसका उचित आदर करें। प्रभु सेवक को सोफ़ी का इंदु के साथ जाना अच्छा न लगता था। उसे अब भी आशा थी कि मामा का क्रोध शांत हो जाएगा और वह सोफ़ी को गले लगाएंगी। सोफ़ी के जाने से वैमनस्य का बढ़ जाना निश्चित था। उसने सोफ़ी को समझाया; किंतु वह इंदु का निमंत्रण अस्वीकार न करना चाहती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब घर न जाऊंगी।

तीसरे दिन राजा महेंद्रकुमार इंदु को विदा कराने आए, तो इंदु ने और बातों के साथ सोफ़ी को साथ ले चलने का जिक्र छेड़ दिया। बोली–मेरा जी वहां अकेले घबराया करता है, मिस सोफ़िया के रहने से मेरा जी बहल जाएगा।

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