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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


जब महेंद्रकुमार बाहर चले गए, तो इंदु बहुत देर तक शोकावस्था में बैठी रही। बार-बार यही खयाल आता–सोफ़ी अपने मन में क्या कहेगी। मैंने उससे कह रखा है कि मेरे स्वामी मेरी कोई बात नहीं टालते। अब वह समझेगी, वह इसकी बात भी नहीं पूछते। बात भी ऐसी ही है, इन्हें मेरी क्या परवा है? बातें ऐसी करेंगे, मानो इनसे उदार संसार में कोई प्राणी न होगा, पर वह सब कोरी बकवास है? इन्हें तो यहीं मंजूर है कि यह दिन-भर अकेली बैठी अपने नाम को रोया करे। दिल में जलते होंगे कि सोफ़ी के साथ इसके दिन आराम से गुजरेंगे। मुझे कैदियों की भांति रखना चाहते हैं। इन्हें जिद करना आता है, तो मैं भी क्या जिद नहीं कर सकती? मैं भी कहे देती हूं आप सोफ़ी को न चलने देंगे, तो मैं भी न जाऊंगी। मेरा कर ही क्या सकते हैं, कुछ नहीं। दिल में डरते हैं कि सोफ़ी के जाने से घर का खर्च बढ़ जाएगा। स्वभाव के कृपण तो हैं ही। उस कृपणता को छिपाने के लिए बदनामी का बहाना निकाला है। दुःखी आत्मा दूसरों की नेकनीयती पर संदेह करने लगती है।

संध्या-समय जब जाह्नवी सैर करने चलीं, तो इंदु ने उनसे यह समाचार कहा, और आग्रह किया कि तुम महेंद्र को समझाकर सोफ़ी को ले चलने पर राजी कर दो। जाह्नवी ने कहा–तुम्हीं क्यों नहीं मान जातीं?

इंदु–अम्मां, मैं सच्चे हृदय से कह रही हूं मैं जिद नहीं करती। अगर मैंने पहले ही सोफ़िया से न कह दिया होता, तो मुझे जरा भी दुःख न होता; पर सारी तैयारियां करके अब उसे न ले जाऊं, तो वह अपने दिल में क्या कहेगी। मैं उसे मुंह नहीं दिखा सकती। यह इतनी छोटी-सी बात है कि अगर मेरा जरा भी ख्याल होता, तो वह इंकार न करते। ऐसी दशा में आप क्योंकर आशा कर सकती हैं कि मैं उनकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य करूं?

जाह्नवी–वह तुम्हारे स्वामी हैं, उनकी सभी बातें तुम्हें माननी पड़ेंगी।

इंदु–चाहे वह मेरी जरा-जरा-सी बातें भी न मानें?

जाह्नवी–हां, उन्हें इसका अख्तियार है। मुझे लज्जा आती है कि मेरे उपदेशों का तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। मैं तुम्हें पति-परायणा सती देखना चाहती हूं, जिसे अपने पुरुष की आज्ञा या इच्छा के सामने अपने मानापमान का जरा भी विचार नहीं होता। अगर वह तुम्हें सिर के बल चलने को कहें, तो भी तुम्हारा धर्म है कि सिर के बल चलो। तुम इतने में ही घबरा गईं?

इंदु–आप मुझसे वह करने को कहती हैं, जो मेरे लिए असंभव है।

जाह्नवी–चुप रहो, मैं तुम्हारे मुंह से ऐसी बातें नहीं सुन सकती। मुझे भय हो रहा है कि कहीं सोफ़ी के विचार-स्वातंत्र्य का जादू तुम्हारे ऊपर भी तो नहीं चल गया !

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