लोगों की राय

सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास)

रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

138 पाठक हैं

नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


इंदु ने इसका कुछ उत्तर न दिया। भय होता था कि मेरे मुंह से कोई ऐसा शब्द न निकल पड़े, जिससे अम्मां के मन में यह संदेह और भी जम जाए, तो बेचारी सोफ़ी का यहां रहना कठिन हो जाए। वह रास्ते-भर मौन धारण किए बैठी रही। जब गाड़ी फिर मकान पर पहुंची, और वह उतरकर अपने कमरे की ओर चली, तो जाह्नवी ने कहा–बेटी, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूं, महेंद्र से इस विषय में अब एक शब्द भी न कहना, नहीं तो मुझे बहुत दुःख होगा।

इंदु ने माता को मर्माहत भाव से देखा और अपने कमरे में चली गई। सौभाग्य से महेंद्रकुमार भोजन करके सीधे बाहर चले गए, नहीं तो इंदु के लिए अपने उद्गारों को रोकना अत्यंत कठिन हो जाता। उसके मन में रह-रहकर इच्छा होती थी कि चलकर सोफ़िया से क्षमा मांगू साफ-साफ कह दूं,–बहन, मेरा कुछ वश नहीं है। मैं कहने को रानी हूं, वास्तव में मुझे उतनी स्वाधीनता भी नहीं है, जितनी मेरे घर की महरियों को। लेकिन यह सोचकर रह जाती थी कि पति-निंदा मेरी धर्म-मर्यादा के प्रतिकूल है। सोफ़ी की निगाहों से गिर जाऊंगी। वह समझेगी, इसमें जरा भी आत्माभिमान नहीं है।

नौ बजे विनयसिंह उससे मिलने आए। वह मानसिक अशांति की दशा में बैठी हुई अपने संदूकों में से सोफ़ी के लिए खरीदे हुए कपड़े निकाल रही थी और सोच रही थी कि इन्हें उनके पास कैसे भेजूं। खुद जाने का साहस न होता था। विनयसिंह को देखकर बोली–क्यों विनय अगर तुम्हारी स्त्री अपनी किसी सहेली को कुछ दिनों के लिए अपने साथ रखना चाहे, तो तुम उसे मना कर दोगे, या खुश होगे?

विनय–मेरे सामने यह समस्या कभी आएगी ही नहीं, इसलिए मैं इसकी कल्पना करके अपने मस्तिष्क को कष्ट नहीं देना चाहता।

इंदु–यह समस्या तो पहले ही उपस्थित हो चुकी है।

विनय–बहन, मुझे तुम्हारी बातों से डर लग रहा है।

इंदु–इसीलिए कि तुम अपने को धोखा दे रहे हो; लेकिन वास्तव में तुम उससे बहुत गहरे पानी में हो, जितना तुम समझते हो। क्या तुम समझते हो कि तुम्हारा कई-कई दिनों तक घर में न आना, नित्य सेवा-समिति के कामों में व्यस्त रहना, मिस सोफ़िया की ओर आंख उठाकर न देखना, उसके साये से भागना, उस अंतर्द्वंद्व को छिपा सकता है, जो तुम्हारे हृदय-तल में विकराल रूप से छिड़ा हुआ है? लेकिन याद रखना, इस द्वंद्व की एक झंकार भी न सुनाई दे, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। सोफ़िया तुम्हारा इतना सम्मान करती है, जितना कोई सती अपने पुरुष का भी न करती होगी। वह तुम्हारी भक्ति करती है। तुम्हारें संयम, त्याग और सेवा ने उसे मोहित कर लिया है। लेकिन अगर मुझे धोखा नहीं हुआ है, तो उसकी भक्ति में प्रणय का लेश भी नहीं। यद्यपि तुम्हें सलाह देना व्यर्थ है, क्योंकि तुम इस मार्ग की कठिनाइयों को खूब जानते हो, तथापि मैं तुमसे यही अनुरोध करती हूं कि तुम कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाओ। तब तक कदाचित सोफ़ी भी अपने लिए कोई-न-कोई रास्ता ढूंढ़ निकालेगी। संभव है, इस समय सचेत हो जाने से दो जीवनों का सर्वनाश होने से बच जाए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book