सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
वह अभी द्वार पर खड़ी ही थी कि जाह्ववी बेटी को विदा करके लौंटी, और सोफ़ी के कमरे में आकर बोलीं–बेटी, मेरा अपराध क्षमा करो, मैंने ही तुम्हें रोक लिया। इंदु को बुरा लगा, पर करूं क्या, वह तो गई तुम भी चली जातीं, तो मेरा दिन कैसे कटता? विनय भी राजपूताना जाने को तैयार बैठे हैं, मेरी तो मौत हो जाती। तुम्हारे रहने से मेरा दिल बहलता रहेगा। सच कहती हूं बेटी, तुमने मुझ पर कोई मोहिनी-मंत्र फूंक दिया है।
सोफ़िया–आपकी शालीनता है, जो ऐसा कहती हैं। मुझे खेद हैं, इंदु ने जाते समय मुझसे हाथ भी न मिलाया।
जाह्नवी–केवल लज्जावश बेटी, केवल लज्जावश। मैं तुमसे कहती हूं, ऐसी सरल बालिका संसार में न होगी। तुझे रोकर मैंने उस पर घोर अन्याय किया है। मेरी बच्ची का वहां जरा भी जी नहीं लगता महीने-भर रह जाती है, तो स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। इतनी बड़ी रियासत है, महेंद्र सारा बोझा उसी के सिर डाल देते हैं। उन्हें तो म्युनिसिपैलिटी ही से फुरसत नहीं मिलती। बेचारी आय-व्यय का हिसाब लिखते-लिखते घबरा जाती है, उस पर एक-एक पैसे का हिसाब ! महेंद्र को हिसाब रखने की धुन है। जरा-सा फर्क पड़ा, तो उसके सिर हो जाते हैं। इंदु को अधिकार है, जितना चाहे खर्च करे, पर हिसाब जरूर लिखे। राजा साहब किसी की रू-रियासत नहीं करते। कोई नौकर एक पैसा भी खा जाए, तो उसे निकाल देते हैं; चाहे उसने उनकी सेवा में अपना जीवन बिता दिया हो। यहां मैं इंदु को कभी कड़ी निगाह से नहीं देखती, चाहे घी का घड़ा लुढ़का दे। वहां जरा-जरा-सी बात पर राजा साहब की घुड़कियां सुननी पड़ती है। बच्ची से बात नहीं सही जाती। जवाब तो देती नहीं–और यही हिंदू स्त्री का धर्म है–पर रोने लगती है। वह दया की मूर्ति है। कोई उसका सर्वस्व खा जाए, लेकिन ज्यों ही उसके सामने आकर रोया, बस उसका दिल पिघला। सोफ़ी भगवान ने मुझे दो बच्चे दिए, और दोनों ही को देखकर हृदय शीतल हो जाता है। इंदु जितनी ही कोमल प्रकृति और सरल हृदया है, विनय उतना ही धर्मशील और साहसी है। थकना तो जानता ही नहीं। मालूम होता है, दूसरों की सेवा करने के लिए ही उसका जन्म हुआ है। घर में किसी टहलनी को भी कोई शिकायत हुई, और सब काम छोड़कर उसकी दवा-दारू करने लगा। एक बार मुझे ज्वर आने लगा था–इस लड़के ने तीन महीने तक द्वार का मुंह नहीं देखा। नित्य मेरे पास बैठा रहता, कभी पंखा झलता, कभी पांव सहलाता, कभी रामायण और महाभारत पढ़कर सुनाता। कितना कहती, बेटा जाओ, घूमो-फिरो; आखिर ये लौड़ियां-बांदिया किस दिन काम आएंगी, डॉक्टर रोज आते ही हैं; तुम क्यों मेरे साथ सती होते हो; पर किसी तरह न जाता। अब कुछ दिनों से सेवा-समिति का आयोजन कर रहा है। कुंवर साहब को जो सेवा-समिति से इतना प्रेम है, वह विनय ही के सत्संग का फल है, नहीं तो आज से तीन साल पहले इनका-सा विलासी सारे नगर में न था। दिन में दो बार हजामत बनती थी। दरजनों धोबी और दरजी कपड़े धोने और सीने के लिए नौकर थे। पेरिस से एक कुशल धोबी कपड़े संवारने के लिए आया था। कश्मीर और इटली के बावरची खाना पकाते थे। तस्वीरों का इतना व्यसन था कि कई बार अच्छे चित्र लेने के लिए इटली तक की यात्रा की। तुम उन दिनों मंसूरी रही होगी। सैर करने निकलते, तो सशस्त्र सवारों का एक दल साथ चलता। शिकार खेलने की लत थी, महीनों शिकार खेलते रहते। कभी कश्मीर, कभी बीकानेर, कभी नेपाल, केवल शिकार खेलने जाते। विनय ने उनकी काया ही पलट दी। जन्म का विरागी है। पूर्व-जन्म में अवश्य कोई ऋषि रहा होगा।
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